अष्टविनायक - मोरेश्वर

अष्टविनायक में आस्था रखने वाले भक्त मोरेश्वर गणेश तीर्थ क्षेत्र को भगवान श्री गणेश का लोक यानि रहने का स्थान मानते हैं। जिसे वह स्वानंदलोक कहते हैं। यह क्षेत्र भुस्वानंद भुवन के नाम से भी जाना जाता है। जिसका अर्थ होता है परम आनंद और सुख से भरा स्थान। इसे विष्णु के वास वैकुंठ और भगवान शिव के स्थान कैलाश के समान माना जाता है। शास्त्रों के अनुसार मोरेश्वर श्री गणेश त्रिगुणातीत यानि सत, रज, तम से दूर, निराकार, ओंकार स्वरुप और स्वयंभु हैं। वह हमेशा योग की चौथी अवस्था जिसे तुरीय कहते हैं, में होते हैं।

मंदिर की सरंचना -

भगवान श्री मोरेश्वर अष्टविनायक का मंदिर महाराष्ट्र के पुणे जिले में बारामती तालुका में करहा नदी के किनारे स्थित है। यहां से अष्टविनायक गणेश की यात्रा शुरु होती है। यह पुणे से लगभग ६४ किलोमीटर दूर स्थित है। इस मंदिर का निर्माण १४वीं सदी में किया गया। मुख्य मंदिर उत्तरामुखी होकर गांव के मध्य स्थित है। इसकी संरचना एक छोटे किले के समान दिखाई देती है। मंदिर का परिसर ५० फीट ऊंची दीवारों से घिरा है। चारों कोनों पर चार मिनारों की सरंचना बनी है। मंदिर में चार द्वार हैं। पूर्वी द्वार लक्ष्मीनारायण द्वार, दक्षिणी द्वार शंकर-पार्वती द्वार, पश्चिमी द्वार रती-काम द्वार और उत्तरी द्वार महिवराह द्वार कहलाता है। जो क्रमश: धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के प्रतीक हैं। मंदिर के मुख्य द्वार पर कछुआ की एक बड़ी प्रतिमा और शिला से बनी नंदी की प्रतिमा स्थापित है।

मंदिर में देवताओं और ऋषि मुनियों की प्रतिमाएं भी स्थापित है। यहां गणेश जी की आठ प्रतिमाएं मंदिर के आठ कोनों में विराजित है। जिनके नाम हैं एकदंत, महोदरा, गजानन, लंबोदर, विकट, विघ्रराज, धूम्रवर्ण और वक्रतुंड है। मंदिर परिसर में शमी, मंदार और तराती के वृक्ष हैं। तराती का वृक्ष को कल्पवृक्ष क े नाम से पुकारा जाता है। मनोकामनाओं की पूर्ति के लिये भक्त इस वृक्ष के नीचे बैठकर ध्यान करते हैं।

मूर्ति का स्वरुप -

मंदिर के केन्द्रस्थान में दिव्य और आकर्षक भगवान श्री मयूरेश्वर गणेश की बैठी हुई अवस्था में प्रतिमा हैं। प्रतिमा पूर्वाभिमुख है, उनका उदर बांई ओर मुड़ा होकर प्रतिमा पर सिंदूर और तेल से लेपित है। भगवान के तीन नेत्र हैं। नेत्र और नाभि में हीरे जड़े हैं। मस्तक के ऊपर पीछे की ओर शेषनाग का फन है और दोनों ओर रिद्धी, सिद्धी की प्रतिमा है। श्री गणेश के वाहन मूषक या चूहा और मयूर प्रतिमा के सामने की ओर दिखाई देते हैं।

कथा - पुरातन काल में मिथिला राज्य की गंडकी नगरी में राजा चक्रपाणी हुआ। वह और उनकी पत्नी उग्रा की कोई संतान न होने से दु:खी रहते थे। संतान प्राप्ति के उन्होंने सूर्यदेव की पूजा और तप किया। सूर्यदेव की कृपा से उग्रा गर्भवती हो गई। किंतु गर्भ में पल रहे भू्रण का ताप और तेज वह सहन न कर सकी और उसने उस भ्रूण को सागर में बहा दिया। उस भ्रूण से एक तेजस्वी शिशु का जन्म हुआ। सागर से प्राप्त उस शिशु को एक ब्राह्मण ने राजा चक्रपाणी को सौंप दिया। समुद्र से प्राप्त होने के कारण राजा ने उसका नाम सिंधु रखा। सिंधु बड़ा होकर शक्तिशाली हुआ। उसने गुरु शुक्राचार्य के कहने पर सूर्यदेव क ी तपस्या कर वर प्राप्त किया। सूर्यदेव ने वर में सिंधु को अमृत देकर कहा कि जब तक यह नाभि में रहेगा है, तब तक तुम्हारी मृत्यु नहीं होगी। अमरत्व प्राप्त करने के बाद सिंधु ने देवताओं के राजा इंद्र, विष्णु आदि पर आक्रमण किया और उन्हें बंदी बना लिया। तब बाकी देवताओं ने भगवान श्री गणेश से प्रार्थना कर दैत्यराज सिंधु से देवताओं रक्षा करने को कहा। श्री गणेश देवों की प्रार्थना से प्रसन्न हुए और देवी पार्वती के पुत्र के रुप में जन्म लेकर दैत्यराज सिंधु का अंत कर दिया।

भगवान गणेश जन्म और सिंधु दैत्य का अंत - एक बार माता पार्वती ने भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को मिट्टी की मूर्ति बनाई और ओंमकार मंत्र के जाप करने से वह मिट्टी की मूर्ति शिशु के रुप में बदल गई। यही शिशु श्री गणेश हुए। एक बार शिव और पार्वती ने यह मेरु पर्वत को छोडऩे का निश्चय किया। अत: कैलाश पर्वत की ओर जाते समय राह में श्री गणेश ने सिद्धि और बुद्धि की सहायता से दैत्य कमलासुर का वध कर दिया। इसके बाद उन्होंने देवताओं की प्रार्थना पर गंडकी नगरी के दैत्यराज सिंधु पर पूरी शिव की सेना सहित आक्रमण किया। पहले श्रीगणेश ने सिंधु दैत्य के दो पुत्रों का अंत किया। उन्होंने दैत्यराज को सभी देवी-देवताओं को छोडऩे और युद्ध समाप्त करने को कहा। किंतु दैत्य के नहीं मानने पर भगवान गणेश ने परसु से वार कर उसकी नाभि का अमृत सुखाकर सिंधु दैत्य का अंत कर दिया। इस युद्ध के बाद श्री गणेश मयुर पर विराजित हुए और मयूरेश्वर यानि मयूर पर बैठने वाले कहलाए। साथ ही श्री गणेश अपने भक्तों के इच्छा से मोरगांव में रहने का निश्चय किया।

अन्य दर्शनीय स्थल - 

करहा नदी - ऐसा माना जाता है कि भगवान ब्रह्मदेव द्वारा सात तीर्थों के जल से इस पवित्र नदी प्रगट हुई। इसमें ७ स्नान तीर्थ है, जो पापों का नाश करने वाले माने जाते हैं।

जदभरत - यह करहा नदी के उत्तर में स्थित है। यहां पर शिला पर पांच शिवलिंग हैं।

नग्रभैरव - यह मोरगांव के क्षेत्रपाल माने जाते हैं। यह मोरगांव से पूर्व की ओर डेढ़ किलोमीटर दूर स्थित है। मयूरेश्वर गणेश के दर्शन के पूर्व श्रद्धालु नग्रभैरव के दर्शन करते हैं और गुड़ और नारियल का प्रसाद चढ़ाते हैं।

कैसे पहुंचे -

बस मार्ग - मोरेश्वर गणेश पहुंचने के लिए सबसे सुविधाजनक रास्ता पुणे से जाता है। पुणे से मोरगांव जाने के लिए बस, रेल तथा स्थानीय बसों की सुविधा उपलब्ध है। पुणे-शोलापुर राजमार्ग से मोरगांव की पुणे से दूरी लगभग ७९ किलोमीटर है। इसके अलावा अन्य मार्ग पूणे से जेजूरी और जेजूरी से मोरगांव का है। इस मार्ग से पुणे और मोरगांव की दूरी लगभग ६४ किलोमीटर होती है।

रेलमार्ग -
पुणे-डौंड रेलमार्ग केडगांव होकर बस द्वारा मोरगांव पहुंचा जा सकता है। इसी प्रकार दक्षिण रेलवे के नीरा रेल्व स्टेशन पहुंचकर बस द्वारा मोरगांव पहुंचा जा सकता है।

कब जाएं -अष्टविनायक मोरेश्वर की यात्रा का उचित समय अक्टूबर से मार्च के मध्य माना जाता है। अनेक श्रद्धालु और पर्यटक नवम्बर माह में हल्की ठंडे मौसम में भी यहां की यात्रा करना पसंद करते हैं।

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