अष्ट विनायक - श्री सिद्धविनायक गणेश


अष्ट विनायक गणेश या भगवान श्री गणेश के आठ पवित्र मंदिर महाराष्ट्र के पुणे के समीप स्थित है। इसी अष्टविनायक यात्रा का एक पड़ाव श्री सिद्धविनायक गणेश मंदिर है। यह महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले की करजत तहसील के दूरस्थ गांव सिद्धटेक में स्थित है। सिद्धटेक भीमा नदी के किनारे बसा है। नदी का प्रवाह दक्षिणामुखी है। एक रोचक बात यह है कि यह स्थान बहुत शांत क्षेत्र है। इसका प्रमाण इस बात से मिलता है कि यहां भीमा नदी तेज गति से प्रवाहित होती है, परंतु उसका कोई शोर नहीं होता। यहां श्री सिद्धविनायक गणेश सिद्धी देने वाले बलशाली देवता के रुप में प्रसिद्ध है।

पौराणिक महत्व -

ऐसी पौराणिक मान्यता है कि भगवान विष्णु ने यहां पर तप कर सिद्धी प्राप्त की। इस सिद्धी के बल से भगवान विष्णु ने सहस्त्र यानि हजार वर्षों तक मधु और कैटभ नाम के शक्तिशाली दैत्यों से युद्ध कर उनका संहार करने में सफल हुए। कथानुसार भगवान ब्रह्मा ने सृष्टि रचना के विचार से ओम अक्षर का लगातार जप किया। जिससे भगवान श्री गणेश उनकी तपस्या प्रसन्न और ब्रह्मदेव को सृष्टि रचना करने की मनोकामना पूरे होने का वरदान दिया। जब भगवान ब्रह्मदेव सृष्टि की रचना कर रहे थे, तब भगवान विष्णु को नींद आ गई। शयन की स्थिति में भगवान विष्णु के कानों से मधु और कैटभ नाम के दैत्यों बाहर निकले। दोनों दैत्यों बाहर आकर समस्त देवी-देवताओं को पीडि़त करने लगे। तब भगवान ब्रह्मदेव ने देवी-देवताओं से कहा कि भगवान विष्णु ही इन दैत्यों का संहार करने में सक्षम है। भगवान विष्णु भी शयन से जागे और उन्होंने उन दोनों शक्तिशाली दैत्यों को मारने की भरसक कोशिश की, परंतु वह असफल रहे। तब भगवान विष्णु ने युद्ध रोककर गंधर्व का रुप लेकर शिव भक्ति में गाना शुरु किया। तपस्या में लीन भगवान शिव ने जब यह सुनकर तप से जागे। तब भगवान विष्णु ने भगवान शिव से दैत्यों को मारने का उपाय पूछा। तब भगवान शिव ने विष्णु से कहा कि जब तक वह श्री गणेश का आशीर्वाद प्राप्त नहीं करते उन्हें युद्ध में सफलता नहीं मिलेगी। भगवान शिव ने विष्णु को श्रीगणेश का षडाक्षर मंत्र गणेशाय नम: जपने को कहा। जिससे वह जो चाहेंगे प्राप्त कर लेगें।

यहां श्री गणेश ने भगवान विष्णु को दर्शन दिए। इस मंदिर का निर्माण भगवान विष्णु द्वारा किया गया माना जाता है। तब भगवान विष्णु ने भगवान श्री गणेश की कृ पा प्राप्त करने के लिए सिद्धक्षेत्र वर्तमान सिद्धटेक को चुना। यहां घोर तप कर उन्होंने श्री गणेश को प्रसन्न किया। भगवान गणेश ने उनकी मनोकामना पूरी होने का आशीर्वाद दिया। तब भगवान विष्णु सिद्धी प्राप्त कर पर्वत की चोटी पर भगवान गणेश का मंदिर बनाया और गजानन की मूर्ति स्थापित की। इसके बाद भगवान विष्णु ने दैत्यों का संहार किया और श्री गणेश के आशीर्वाद से ही ब्रह्मदेव ने निर्विघ्र सृष्टि रचना की। भगवान ब्रह्मदेव की दोनों पुत्रियों को श्रीगणेश ने अपनी पत्नी के रुप में स्वीकार किया।

ऐसा माना जाता है कि यहां वेद व्यास ने भी पुराणों की रचना से पहले तप किया और भगवान श्री गणेश की प्रसन्नता प्राप्त की। युगान्तर में भगवान विष्णु द्वारा बनाया गया श्री गणेश मंदिर तो नष्ट हो गया। किंतु ऐसा माना जाता है कि एक चरवाहे ने इस स्थान पर भगवान गणेश के दर्शन किए। तब उसने यहां पर भगवान गणेश का पूजन शुरु किया। इसके बाद पेशवा काल में इस नवीन मंदिर का पुननिर्माण हुआ।

मंदिर और प्रतिमा -

अष्टविनायक गणेश में श्री सिद्धी विनायक मंदिर उत्तरामुखी होकर ऊंची पहाड़ी पर स्थित है। मंदिर का मंदिर में श्री सिद्धविनायक गणेश की स्वयंभु प्रतिमा विराजित है। यह स्थान 5 फिट ऊंचा और १० फीट लंबा है। सिद्धीविनायक प्रतिमा के आस-पास जय और विजय की कांसे से बनी मूर्ति भी विराजित है। मंदिर में ही शिव परिवार का छोटा सा मंदिर है। प्रतिमा जाग्रत मानी जाती है। यह तीन फीट ऊंची है और ढाई फीट चौड़ी है। उत्तरामुखी है। श्री सिद्धीविनायक की सूंड दाएं ओर मुड़ी हुई है। दांए सूंड वाली गणेश प्रतिमा और मंदिर को बहुत सिद्धी देने वाला माना जाता है। ऐसे गणेश शीघ्र कृपा करने वाले और प्रसन्न होने वाले माने जाते हैं। प्रतिमा गजमुखी है, फिर भी उनकी सूंड बहुत बड़ी नहीं है। रिद्धी और सिद्धी श्री गणेश की पालथी में विराजित है। मुख मण्डल बहुत सुंदर और आकर्षक है। ऐसा माना जाता है भगवान श्री सिद्धीविनायक की परिक्रमा बहुत सुफल देने वाली है। एक प्रदक्षिणा ५ किलोमीटर की होती है। मुख्य मंदिर के समीप ही अन्य देवी-देवताओ के मंदिर है। जिनमें भगवान विष्णु, भगवान शिव और माता शीतला मंदिर प्रमुख है।

उत्सव -

श्री सिद्धीविनायक मंदिर में भाद्रपद और माघ माह की शुक्लपक्ष की प्रतिपदा से पंचमी के मध्य गणेश उत्सव धूमधाम से मनाए जाते हैं। इस दौरान यहां पर महापूजा और महाभोग का आयोजन होता है। भगवान गणेश की प्रतिमा को पालकी में बैठाकर कर नगर में भ्रमण कराया जाता है। आरती, पूजा आदि की जाती है।

कैसे पहुंचे -

वायु मार्ग - श्री सिद्धीविनायक, सिद्धटेक पहुंचने के लिए सबसे निकटतम हवाई अड्डे पुणे और मुंबई है। रेल मार्ग - सिद्धटेक जाने के लिए नजदीकी रेल्वे स्टेशन हैं - मुंबई, लोकमान्य तिलक, अहमदनगर और पुणे। पुणे-सोलापुर रेल मार्ग पर डांड स्टेशन से सिद्धटेक १८ किलोमीटर दूर स्थित है। सड़क मार्ग - पुणे से सिद्धटेक की दूरी १०० किमी और मुंबई से २७५ किमी है। पुणे से डांड जाने वाली बस शिरापुर नाम ग्राम आती है। जहां से सिद्धटेक मात्र १ किलोमीटर दूर है। यहां आकर बोट के माध्यम से सिद्धटेक पहुंचा जा सकता है।

श्री गणेश के आठ रुप - श्री अष्टविनायक


 श्री गणेश के आठ रुप - श्री अष्टविनायक

भगवान श्री गणेश जल तत्व के देवता माने जाते हैं। जल पंचतत्वों या पंचभूतों में एक है। पूरे जगत की रचना पंचतत्वों से हुई है। इस प्रकार जल के साथ श्री गणेश हर जगह उपस्थित हैं। मानव जीवन जल के बिना संभव नहीं हैं। जल के बिना गति, प्रगति कुछ भी असंभव है। इसलिए श्री गणेश को मंगलमूर्ति के रुप में प्रथम पूजा जाता है। हिन्दू धर्म ग्रंथों में सृष्टि रचने वाले भगवान ब्रह्मदेव ने भविष्यवाणी की थी कि हर युग में भगवान श्री गणेश अलग-अलग रुप में अवतरित होंगे। कृतयुग में विनायक, त्रेतायुग में मयूरेश्वर, द्वापरयुग में गजानन और धूम्रकेतु के नाम से कलयुग में अवतार लेंगे। इसी पौराणिक महत्व से जुड़ी है महाराष्ट्र में अष्टविनायक यात्रा। विनायक भगवान गणेश का ही एक नाम है। महाराष्ट्र में पुणे के समीप अष्टविनायक के ८ पवित्र मंदिर २० से ११० किलोमीटर के क्षेत्र में स्थित है। इन मंदिरों का पौराणिक महत्व और इतिहास है। इनमें विराजित गणेश की प्रतिमाएं स्वयंभू मानी जाती है यानि यह स्वयं प्रगट हुई हैं। यह मानव निर्मित न होकर इनका स्वरुप प्राकृतिक है। हर प्रतिमा का स्वरुप एक-दूसरे से अलग है। इन पवित्र प्रतिमाओं के प्राप्त होने के क्रम अनुसार ही अष्टविनायक की यात्रा भी की जाती है। इस क्रम में सबसे पहले मोरगांव स्थित मोरेश्वर इसके बाद क्रमश: सिद्धटेक में सिद्धिविनायक, पाली स्थित बल्लालेश्वर, महाड स्थित वरदविनायक, थेऊर स्थित चिंतामणी, लेण्याद्री स्थित गिरिजात्मज, ओझर स्थित विघ्रेश्वर, रांजणगांव स्थित महागणपति की यात्रा की जाती है। इनमें ६ गणपति मंदिर पुणे जिले में तथा २ रायगढ़ जिले में स्थित हैं। अष्ट विनायक की यह यात्रा मात्र धर्म लाभ ही नहीं बल्कि आध्यात्मिक सुख, मानसिक शांति और आनंद देती है। 

मयूरेश्वर या मोरेश्वर का मंदिर मोरगांव में करहा नदी के किनारे स्थित है। यह महाराष्ट्र के पुणे में बारामती तालुका में स्थित है। यह क्षेत्र भूस्वानंद के नाम से भी जाना जाता है। जिसका अर्थ होता है सुख समृद्ध भूमि। इस क्षेत्र का मोर के समान आकार लिए हुए है। इसके अलावा यह क्षेत्र में बीते काल में बडी संख्या में मोर पाए जाते थे। इस कारण भी इस क्षेत्र का नाम मोरगांव प्रसिद्ध हुआ। 

सिद्धटेक महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले की करजत तहसील में भीम नदी के किनारे स्थित एक छोटा सा गांव है। सिद्धटेक में अष्टविनायक में से एक सिद्धविनायक को परम शक्तिमान माना जाता है। ऐसी मान्यता है कि यहां सिद्धटेक पर्वत था, जहां पर विष्णु ने तप द्वारा सिद्धि प्राप्त की थी। 

अष्टविनायक गणेश में बल्लालेश्वर गणेश ही एकमात्र ऐसे गणेश माने जाते हैं, जिनका नाम भक्त के नाम पर प्रसिद्ध है। यहां गणेश की प्रतिमा को ब्राह्मण की वेशभूषा पहनाई जाती है। 

वरदविनायक गणेश का मंदिर महाराष्ट्र के रायगढ़ जिले के कोल्हापुर तालुका में एक सुंदर पर्वतीय गांव महाड में है। भक्तों की ऐसी श्रद्धा है की यहां वरदविनायक गणेश अपने नाम के समान ही सारी कामनाओं को पूरा होने का वरदान देते हैं। प्राचीन काल में यह स्थान भद्रक नाम से भी जाना जाता था। इस मंदिर में नंददीप नाम से एक दीपक निरंतर प्रज्जवलित है। इस दीप के बारे में माना जाता है कि यह सन १८९२ से लगातार प्रदीप्त है। 

चिंतामणी गणेश का मंदिर महाराष्ट्र के पुणे जिले के हवेली तालुका में थेऊर नामक गांव में है। यह गांव मुलमुथा नदी के किनारे स्थित है। यहां गणेश चिंतामणी के नाम से प्रसिद्ध है। जिसका अर्थ है कि यह गणेश सारी चिंताओं को हर लेते हैं और मन को शांति प्रदान करते हैं। 

गिरिजात्मज अष्टविनायक मंदिर उत्तरी पुणे के लेण्याद्री गांव में स्थित है। यह कुकदी नदी के किनारे बसा है। गणेश पुराण अनुसार इस स्थान का जीरनापुर या लेखन पर्वत था। गिरिजात्मज का अर्थ बताया गया है माता पार्वती के पुत्र। गिरिजा माता पार्वती का ही एक नाम है और आत्मज का अर्थ होता है पुत्र। अष्टविनायक में यह एकमात्र मंदिर है। जो ऊंची पहाड़ी पर बुद्ध गुफा मंदिर में स्थित है। 

विघ्रेश्वर अष्टविनायक का मंदिर कुकदेश्वर नदी के किनारे ओझर नामक स्थान पर स्थित है। विघ्रेश्वर दैत्य को मारने के कारण ही इनका नाम विघ्रेश्वर विनायक हुआ। ऐसा माना जाता है कि तब से यहां भगवान श्री गणेश सभी विघ्रों को नष्ट करने वाले माने जाते हैं।

महागणपति को अष्टविनायक में सबसे दिव्य और शक्तिशाली स्वरुप माना जाता है। यह अष्टभुजा, दशभुजा या द्वादशभुजा वाले माने जाते हैं। त्रिपुरासुर दैत्य को मारने के लिए गणपति ने यह रुप धारण किया। इसलिए इनका नाम त्रिपुरवेद महागणपति नाम से प्रसिद्ध हुआ।

बुध मंदिर - थिरुवेनकाडु


बुध मंदिर - थिरुवेनकाडु 

सनातन धर्म और वैदिक परंपरा की मुख्य विशेषता है कि वह मानव का धर्म के माध्यम से प्रकृति और ब्रह्मांड के साथ अटूट संबंध स्थापित करती है। इसी परंपरा के अंतर्गत ब्रह्मांड में स्थित सारे ग्रह, नक्षत्र आदि को ईश्वर मानकर उसकी पूजा और उपासना के विधान बनाए। इससे मानव स्वयं और प्रकृति की रक्षा करने में सक्षम हुआ। मानव को पीड़ाओं और कष्टों से मुक्ति का मार्ग भी मिला। सौर मंडल में पाए जाने वाले अलग-अलग ग्रहों के देव मंदिर भारत के विभिन्न भागों में स्थित है। जैसे- शनि ग्रह का देव मंदिर शिंगणापुर में, मंगल ग्रह का देव मंदिर उज्जैन में। इसी क्रम में तमिलनाडु राज्य के कुंभकोनम जिले के माईलादुथुराई से २० किलोमीटर दूर थिरुवेनकाडु स्थान पर बुध देव का प्राचीन और पवित्र मंदिर स्थित है। बुध देव का प्राचीन मंदिर कावेरी और मणिकर्णिका नदी के समीप स्थित है। यह स्थान आदि चिदम्बरम के नाम से भी प्रसिद्ध है। यहां पर नवग्रह भी प्रतिष्ठित है, किंतु इस स्थान पर मुख्य रुप से मुख्य देवता के रुप में चार भुजाधारी बुध देव की पूजा का ही महत्व है। इस स्थान पर भगवान शिव का श्वेत रानेश्वर मंदिर भी स्थित है। थिरुवेनकादु को श्वेतअरण्य नाम से भी जाना जाता है। जिसका अर्थ होता है सफेद जंगल। इसी प्रकार बुद्धि के देवता बुध का स्थान होने से यह ज्ञान अरण्य क्षेत्र के नाम से भी प्रसिद्ध है। इसके पीछे मान्यता है कि देवराज इन्द्र के वाहन ऐरावत हाथी ने यहां पर तप किया था। यह उत्तर के बनारस के समान ही पवित्र स्थान माना जाता है। 

प्राचीन काल से ही यह बहुत पवित्र स्थान माना जाता है। यह मंदिर पूर्वाभिमुख है। वर्तमान मंदिर का निर्माण चोलकालीन माना जाता है। मंदिर की संरचना में दो विशाल इमारत पूर्व और पश्चिम में निर्मित है। जिस पर आकर्षक नक्काशी है। ऐसा माना जाता है यहां भगवान शिव ने चिदम्बरम में ताण्डव नृत्य करने से पूर्व उसका अभ्यास इस स्थान पर किया था। यहां मुख्य मंदिर में बुध देव और श्वेत रानेश्वर के अलावा ब्रह्म-विद्यादेवी, दुर्गा, काली, अघोर मूर्ति और नटराज आदि देवताओं की भी पूजा की जाती है। यहां पर प्राचीन परंपराओं के अनुसार श्रद्धालु बुध मंदिर की १७ बार परिक्रमा करते है। हर परिक्रमा में एक दीप प्रज्जवलित किया जाता है। ऐसा माना जाता है कि ऐसा करने से बुध ग्रह के सभी अशुभ प्रभाव नष्ट हो जाते हैं और बुध देव भक्त को बुद्धि और समृद्धि प्रदान करते हैँ। साथ ही वह व्यवसाथ में सफलता, तनावों से राहत देने वाले, एकाग्रता, विद्या और अच्छी स्मरण शक्ति देने वाले भी माने जाते हैं। 

पौराणिक मान्यता के अनुसार बुध ग्रह, चंद्र देव और तारा की संतान है। बुध का विवाह मनु की पुत्री ईदा के साथ हुआ। पुरुरवा को इनकी संतान माना जाता है। लिंग पुराण के अनुसार बुध चंद्रमा और रोहिणी की संतान माने जाते हैं। जबकि विष्णु पुराण, ब्रह्म पुराण और पद्मपुराण अनुसार बुध चंद्रमा और बृहस्पति की पत्नी तारा की संतान है। बुध देव चार भुजाओं वाले हैं और उनका वाहन सिंह है। 

ज्योतिष विज्ञान में बुध ग्रह - 

ज्योतिष विज्ञान के अनुसार बुध ग्रह ईश्वर का दूत माना जाता है। यह बुद्धिमत्ता और वाकपटुता का निर्धारक है। इसलिए यह किसी भी व्यक्ति को विद्वान, शिक्षक, कलाका और सफल व्यवसायी बना सकता है। बुध ग्रह के प्रभाव से किसी भी व्यक्ति में दोहरा चरित्र देखा जाता है। बुध ग्रह को वात, पित्त और कफ का कारक या त्रिदोषात्मक माना जाता है। यह उत्तर दिशा का स्वामी माना जाता है। बुधदेव जल तत्व के स्वामी है। इसका रंग हरा है। इसी प्रकार बुधदेव मिथुन और कन्या राशि के स्वामी है। सूर्य और शुक्र के साथ इनकी मित्रता है। चंद्र के साथ इनकी शत्रुता है। बुध का अच्छा या बुरा प्रभाव अन्य ग्रहों के साथ युति पर निर्भर करता है। बुध अश्लेषा, ज्येष्ठा और रेवती नक्षत्र के स्वामी माने जाते हैं। बुध की धातु कांसा, रत्न पन्ना और अंक ५ होता है।

पौराणिक महत्व - 

इस के संबंध में अनेक पौराणिक मान्यता है । मान्यता है कि जब शिव के वाहन नंदी पर एक दैत्य ने आक्रमण कर घायल कर दिया। तब शिव अपने उग्र अघोर मूर्ति रुप में प्रगट हुए और उस दैत्य का संहार किया। ऐसी ही एक मान्यता के अनुसार जब बुध देव को नपुसंक होने का श्राप मिला, तब उन्होनें इस स्थान पर आकर भगवान शिव की प्रसन्नता के लिए तप और उपासना की। शिव ने बुध के तप से प्रसन्न होकर न सिर्फ बुध को शापमुक्त किया बल्कि उन्हें बुध लोक का स्वामी भी बना दिया। दूसरी मान्यता के अनुसार इस पवित्र स्थान पर उपनिषद काल के संत श्वेतकेतु और देवराज इंद्र के वाहन ऐरावत ने भी भगवान शिव की प्रसन्नता हेतु तप किया। इस स्थान के महत्व का वर्णन संगमकालीन कविताओं, जो शिलाप्पदीकरण नाम से प्रसिद्ध है, में मिलता है। इसके अलावा वाल्मीकी रामायण में भी इस स्थान का उल्लेख है। नयनार भक्तों द्वारा गाए जाने वाले भजनों में भी इस स्थान की महिमा मिलती है। 


पहुंच के संसाधन -

वायु मार्ग - थिरुवेनकाडु पहुंचने के लिए सबसे निकटतम हवाई अड्डे चेन्नई, तिरुचिरापल्ली और पोंडीचेरी है। 

रेलमार्ग - कांचीपुरम, थंजावुर, श्रीरंगम और कुंभकोनम मुख्य रेल्वे स्टेशन है, जहां से थिरुवेनकाडु पहुंचा जा सकता है। यह शियाजी रेल्वे स्टेशन से ९ किलोमीटर दूर स्थित है। 

सड़क मार्ग - चेन्नई और तिरुचिरापल्ली इन दो स्टेशनों से सड़क मार्ग द्वारा थिरुवेनकाडु पहुंचा जा सकता है। वैथीस्वरण कोयल और सेम्पोन्नर कोयल स्थानों से भी सड़क मार्ग द्वारा यहां पहुंचा जा सकता है।

अष्टविनायक - मोरेश्वर

अष्टविनायक में आस्था रखने वाले भक्त मोरेश्वर गणेश तीर्थ क्षेत्र को भगवान श्री गणेश का लोक यानि रहने का स्थान मानते हैं। जिसे वह स्वानंदलोक कहते हैं। यह क्षेत्र भुस्वानंद भुवन के नाम से भी जाना जाता है। जिसका अर्थ होता है परम आनंद और सुख से भरा स्थान। इसे विष्णु के वास वैकुंठ और भगवान शिव के स्थान कैलाश के समान माना जाता है। शास्त्रों के अनुसार मोरेश्वर श्री गणेश त्रिगुणातीत यानि सत, रज, तम से दूर, निराकार, ओंकार स्वरुप और स्वयंभु हैं। वह हमेशा योग की चौथी अवस्था जिसे तुरीय कहते हैं, में होते हैं।

मंदिर की सरंचना -

भगवान श्री मोरेश्वर अष्टविनायक का मंदिर महाराष्ट्र के पुणे जिले में बारामती तालुका में करहा नदी के किनारे स्थित है। यहां से अष्टविनायक गणेश की यात्रा शुरु होती है। यह पुणे से लगभग ६४ किलोमीटर दूर स्थित है। इस मंदिर का निर्माण १४वीं सदी में किया गया। मुख्य मंदिर उत्तरामुखी होकर गांव के मध्य स्थित है। इसकी संरचना एक छोटे किले के समान दिखाई देती है। मंदिर का परिसर ५० फीट ऊंची दीवारों से घिरा है। चारों कोनों पर चार मिनारों की सरंचना बनी है। मंदिर में चार द्वार हैं। पूर्वी द्वार लक्ष्मीनारायण द्वार, दक्षिणी द्वार शंकर-पार्वती द्वार, पश्चिमी द्वार रती-काम द्वार और उत्तरी द्वार महिवराह द्वार कहलाता है। जो क्रमश: धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के प्रतीक हैं। मंदिर के मुख्य द्वार पर कछुआ की एक बड़ी प्रतिमा और शिला से बनी नंदी की प्रतिमा स्थापित है।

मंदिर में देवताओं और ऋषि मुनियों की प्रतिमाएं भी स्थापित है। यहां गणेश जी की आठ प्रतिमाएं मंदिर के आठ कोनों में विराजित है। जिनके नाम हैं एकदंत, महोदरा, गजानन, लंबोदर, विकट, विघ्रराज, धूम्रवर्ण और वक्रतुंड है। मंदिर परिसर में शमी, मंदार और तराती के वृक्ष हैं। तराती का वृक्ष को कल्पवृक्ष क े नाम से पुकारा जाता है। मनोकामनाओं की पूर्ति के लिये भक्त इस वृक्ष के नीचे बैठकर ध्यान करते हैं।

मूर्ति का स्वरुप -

मंदिर के केन्द्रस्थान में दिव्य और आकर्षक भगवान श्री मयूरेश्वर गणेश की बैठी हुई अवस्था में प्रतिमा हैं। प्रतिमा पूर्वाभिमुख है, उनका उदर बांई ओर मुड़ा होकर प्रतिमा पर सिंदूर और तेल से लेपित है। भगवान के तीन नेत्र हैं। नेत्र और नाभि में हीरे जड़े हैं। मस्तक के ऊपर पीछे की ओर शेषनाग का फन है और दोनों ओर रिद्धी, सिद्धी की प्रतिमा है। श्री गणेश के वाहन मूषक या चूहा और मयूर प्रतिमा के सामने की ओर दिखाई देते हैं।

कथा - पुरातन काल में मिथिला राज्य की गंडकी नगरी में राजा चक्रपाणी हुआ। वह और उनकी पत्नी उग्रा की कोई संतान न होने से दु:खी रहते थे। संतान प्राप्ति के उन्होंने सूर्यदेव की पूजा और तप किया। सूर्यदेव की कृपा से उग्रा गर्भवती हो गई। किंतु गर्भ में पल रहे भू्रण का ताप और तेज वह सहन न कर सकी और उसने उस भ्रूण को सागर में बहा दिया। उस भ्रूण से एक तेजस्वी शिशु का जन्म हुआ। सागर से प्राप्त उस शिशु को एक ब्राह्मण ने राजा चक्रपाणी को सौंप दिया। समुद्र से प्राप्त होने के कारण राजा ने उसका नाम सिंधु रखा। सिंधु बड़ा होकर शक्तिशाली हुआ। उसने गुरु शुक्राचार्य के कहने पर सूर्यदेव क ी तपस्या कर वर प्राप्त किया। सूर्यदेव ने वर में सिंधु को अमृत देकर कहा कि जब तक यह नाभि में रहेगा है, तब तक तुम्हारी मृत्यु नहीं होगी। अमरत्व प्राप्त करने के बाद सिंधु ने देवताओं के राजा इंद्र, विष्णु आदि पर आक्रमण किया और उन्हें बंदी बना लिया। तब बाकी देवताओं ने भगवान श्री गणेश से प्रार्थना कर दैत्यराज सिंधु से देवताओं रक्षा करने को कहा। श्री गणेश देवों की प्रार्थना से प्रसन्न हुए और देवी पार्वती के पुत्र के रुप में जन्म लेकर दैत्यराज सिंधु का अंत कर दिया।

भगवान गणेश जन्म और सिंधु दैत्य का अंत - एक बार माता पार्वती ने भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को मिट्टी की मूर्ति बनाई और ओंमकार मंत्र के जाप करने से वह मिट्टी की मूर्ति शिशु के रुप में बदल गई। यही शिशु श्री गणेश हुए। एक बार शिव और पार्वती ने यह मेरु पर्वत को छोडऩे का निश्चय किया। अत: कैलाश पर्वत की ओर जाते समय राह में श्री गणेश ने सिद्धि और बुद्धि की सहायता से दैत्य कमलासुर का वध कर दिया। इसके बाद उन्होंने देवताओं की प्रार्थना पर गंडकी नगरी के दैत्यराज सिंधु पर पूरी शिव की सेना सहित आक्रमण किया। पहले श्रीगणेश ने सिंधु दैत्य के दो पुत्रों का अंत किया। उन्होंने दैत्यराज को सभी देवी-देवताओं को छोडऩे और युद्ध समाप्त करने को कहा। किंतु दैत्य के नहीं मानने पर भगवान गणेश ने परसु से वार कर उसकी नाभि का अमृत सुखाकर सिंधु दैत्य का अंत कर दिया। इस युद्ध के बाद श्री गणेश मयुर पर विराजित हुए और मयूरेश्वर यानि मयूर पर बैठने वाले कहलाए। साथ ही श्री गणेश अपने भक्तों के इच्छा से मोरगांव में रहने का निश्चय किया।

अन्य दर्शनीय स्थल - 

करहा नदी - ऐसा माना जाता है कि भगवान ब्रह्मदेव द्वारा सात तीर्थों के जल से इस पवित्र नदी प्रगट हुई। इसमें ७ स्नान तीर्थ है, जो पापों का नाश करने वाले माने जाते हैं।

जदभरत - यह करहा नदी के उत्तर में स्थित है। यहां पर शिला पर पांच शिवलिंग हैं।

नग्रभैरव - यह मोरगांव के क्षेत्रपाल माने जाते हैं। यह मोरगांव से पूर्व की ओर डेढ़ किलोमीटर दूर स्थित है। मयूरेश्वर गणेश के दर्शन के पूर्व श्रद्धालु नग्रभैरव के दर्शन करते हैं और गुड़ और नारियल का प्रसाद चढ़ाते हैं।

कैसे पहुंचे -

बस मार्ग - मोरेश्वर गणेश पहुंचने के लिए सबसे सुविधाजनक रास्ता पुणे से जाता है। पुणे से मोरगांव जाने के लिए बस, रेल तथा स्थानीय बसों की सुविधा उपलब्ध है। पुणे-शोलापुर राजमार्ग से मोरगांव की पुणे से दूरी लगभग ७९ किलोमीटर है। इसके अलावा अन्य मार्ग पूणे से जेजूरी और जेजूरी से मोरगांव का है। इस मार्ग से पुणे और मोरगांव की दूरी लगभग ६४ किलोमीटर होती है।

रेलमार्ग -
पुणे-डौंड रेलमार्ग केडगांव होकर बस द्वारा मोरगांव पहुंचा जा सकता है। इसी प्रकार दक्षिण रेलवे के नीरा रेल्व स्टेशन पहुंचकर बस द्वारा मोरगांव पहुंचा जा सकता है।

कब जाएं -अष्टविनायक मोरेश्वर की यात्रा का उचित समय अक्टूबर से मार्च के मध्य माना जाता है। अनेक श्रद्धालु और पर्यटक नवम्बर माह में हल्की ठंडे मौसम में भी यहां की यात्रा करना पसंद करते हैं।

श्री महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंङ्ग

 श्री महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंङ्ग

भगवान शिव का यह तीसरा ज्योतिर्लिंङ्ग मध्यप्रदेश के उज्जैन नगर में है। यह भूमि की सतह से नीचे और दक्षिणमुखी है। मंदिर के गर्भगृह में ज्योतिर्लिंङ्ग है। मध्य में ओंकारेश्वर तथा सबसे ऊपर के भाग में नागचंद्रेश्वर की मूर्ति है।

कथा-महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंङ्ग की उत्पत्ति को लेकर दो कथाएं हैं। एक कथा यह है कि वेदप्रिय ब्राह्मïण व उसके चार पुत्रों को दूषण नामक राक्षस से बचाने के लिए शिव ज्योति के रूप में प्रकट हुए और दूषण व अन्य राक्षसों का संहार किया। मान्यता है तभी से शिव यहां ज्योतिर्लिंङ्ग के रूप में विराजमान हैं। दूसरी कथा यह है कि चंद्रसेन राजा की शिवभक्ति को देख एक विधवा ग्वालन का लड़का बड़ा प्रभावित हुआ। अपने घर के पास एक पत्थर को वह शिव रूप में पूजने लगा। एक दिन ग्वालन ने गुस्से में आकर उस शिवरूपी पत्थर व पूजन सामग्री को फेंक दिया। लड़का रोते-रोते सो गया और जब उठा तो देखा कि उस स्थान पर शिव का भव्य मंदिर बन गया है, तभी से यह ज्योतिर्लिंङ्ग यहां स्थापित है।

महत्व- महाकालेश्वर एकमात्र ऐसा ज्योतिर्लिंङ्ग हैं जहां प्रतिदिन प्रात: चार बजे भस्म से आरती होती है। इसे भस्मार्ती कहते हैं। मान्यता है कभी श्मशान की चिता की भस्म भगवान को चढ़ाई जाती थी। इसके बाद जो आरती होती थी वह भस्मार्ती के रूप में विश्व प्रसिद्ध हुई। आजकल गाय के गोबर से बने कंडे की राख भगवान को भस्म के रूप में आरती के दौरान चढ़ाई जाती है। भस्मार्ती के अलावा मंदिर में प्रात: 10 से 11 बजे तक नैवेद्य आरती, संध्या 5 से 6 बजे तक अभ्यंग शृंगार, संध्या 6 से 7 बजे तक सायं आरती होती है। रात्रि 10.30 बजे से 11 बजे तक शयन आरती होती है। इसके बाद मंदिर के पट बंद हो जाते हैं। भगवान महाकालेश्वर को भक्ति, शक्ति एवं मुक्ति का देव माना जाता है । इसलिए इनके दर्शन मात्र से सभी कामनाओं की पूर्ति एवं मोक्ष प्राप्ति होती है ।

उज्जैन नगर का महत्व :- उज्जैन नगर का पुराणों एवं महाभारत में भी महिमा बताई गई है । यहॉं भगवान श्रीकृष्ण और बलराम ने सांदिपनी आश्रम में शिक्षा ग्रहण की । यहॉं प्रति बारह साल में बृहस्पति के सिंह राशि में आने पर कुम्भ मेला लगता है । जिसे सिंहस्थ मेला नाम से जाना जाता है । यहाँ पुण्य सलिला क्षिप्रा नदी है, जिसका महत्व गंगा के समान बताया गया है ।

पहुंच के संसाधन - महाकालेश्वर के दर्शन हेतु उज्जैन पहुंचने के लिए सभी प्रमुख शहरों से सड़क व रेलवे सुविधाएं उपलब्ध हैं।

सड़क मार्ग- उज्जैन के लिए बस सुविधा उपलब्ध है। बस स्टैंड से मंदिर तक के लिए लोक परिवहन के साधन भी हैं।

रेल मार्ग- उज्जैन देश के सभी प्रमुख शहरों से रेल मार्ग के माध्यम से जुड़ा है। मध्य रेलवे की भोपाल-उज्जैन तथा पश्चिम रेलवे की नागदा-उज्जैन, फतेहाबाद-उज्जैन लाइन है ।

वायु सेवा- सबसे नजदीकी हवाई अडड 55 किमी दूर इंदौर में है। मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में भी हवाई अड्डा है जो यहां से 180 किमी दूरी पर है।

कब जाएं - महाकाल मंदिर वर्ष भर में आप कभी भी जा सकते हैं। लेकिन मार्च से जून का समय सबसे अनुकूल रहता है। श्रावण-भादौ मास में निकलने वाली महाकाल सवारी का विशेष महत्व होता है । अत: इन मास में यात्रा से धार्मिक लाभ प्राप्त होता है ।

सलाह :- उज्जैन एक धार्मिक नगरी है । जहाँ वर्ष भर कई त्यौहार-उत्सव मनाए जाते हैं । ऐसे त्यौहारों पर प्राय: नगर में अपार जन समूह एकत्रित होता है । अत: यात्रा के पूर्व ऐसे बड़े अवसरों की जानकारी प्राप्त करें । ताकि ठहरने या रात्रि विश्राम की स्थिति में असुविधा से बचा जा सके ।

बद्रीनाथ धाम

बद्रीनाथ धाम में भगवान बद्रीनारायण की सेवा पूरी भक्ति और श्रद्धा के साथ संपन्न होती है। भगवान की यह सेवा ब्रह्ममूहुर्त से शुरु होकर रात्रि पर्यन्त तक चलती है। दर्शन तीर्थयात्री और भक्तों के दर्शन के लिए मंदिर प्रात: 2 बजे ही खुल जाता है। इसके बाद मुख्य पुजारी जो श्री रावलजी के नाम से प्रसिद्ध है और नम्बूदर ब्राह्मण हैं, भगवान की प्रात:कालीन पूजा महाभिषेक करते हैं। इसका समय सुबह ७ बजे से ९ बजे तक होता है। भगवान को जल और दूध से स्नान कराया जाता है। स्नान के बाद सुंदर वस्त्र और आभुषण पहनाए जाते हैं। पूरे गर्भगृह में सुगंधित फूलों से सजाया जाता है। भगवान का स्वर्ण जडि़त मुकूट और सोने के छत्र से श्रृंगार किया जाता है। श्रृंगारित मुद्रा में भगवान की पूजा धूप, दीप और वेद मंत्रों के साथ होती है। पूजा के दौरान ऐसा आध्यात्मिक वातावरण निर्मित होता है कि भक्तों में भक्ति और श्रद्धा जागती है। भाव विभोर हुए भक्त स्वयं को धन्य मानते हैं। पूजा अभिषेक के बाद भगवान को बालभोग यानि खीर का भोग अर्पित किया जाता है। दर्शनार्थियों के लिए पूजा-अर्चना के लिए मंडप में अलग स्थान नियत हैं। दर्शन मंडप में बैठकर वेद पाठ चलता रहता है। इसके बाद होने वाले श्रीमद्भागवत पाठ, गीता पाठ के साथ ही यहां भक्ति की गंगा बहती है। भजन-कीर्तन के बाद दोपहर १२ बजे का समय भगवान के महाभोग का होता है। महाभोग अर्पित करने के बाद दर्शनार्थियों के लिए मंदिर बंद कर दिया जाता है। सायंकाल लगभग साढ़े तीन बजे मंदिर भगवान की एकांत सेवा के लिए खुलता है। इसके बाद भक्तों के दर्शनार्थ मंदिर साढ़े चार बजे फिर से खोला जाता है। सांयकाल ६ बजे का समय भगवान की विशेष पूजा-अर्चना का होता है। भगवान की शयन आरती का समय रात्रि आठ बजे से नो के मध्य होता है। शयन आरती के बाद मंदिर के पट दर्शनार्थियों के लिए बंद हो जाते हैं। बद्रीनाथ धाम में बद्रीनारायण मंदिर में प्रवेश करते ही श्रद्धालु का मन भक्ति और आनंद में डूब जाता है। भगवान के दर्शन के क्षण में मन के सारे विकार जैसे मिट जाते हैं। हर भक्त भगवान के दिव्य स्वरुप के दर्शन से अभिभूत हो जाता है। बद्रीनाथ मंदिर में चार भुजाओं की काले पाषाण की अनमोल वस्त्र और आभुषण धारण किए हुए दिव्य मूर्ति है। भगवान पद्मासन की स्थिति में हैं। उनके मस्तक पर हीरा लगा है। मुकुट स्वर्ण मंडित है। इस मूर्ति के आस-पास नर-नारायण, उद्धवजी, कुबेर और नारदजी की मूर्ति है। प्रदक्षिणा में भी श्री हनुमान, लक्ष्मी, श्री गणेश, कर्ण की प्रतिमाएं हैं। गर्भगृह के दायीं ओर माता लक्ष्मी का मंदिर है। जिसके समीप ही भगवान का भोग तैयार करने का स्थान है। यहां माता लक्ष्मी की प्रतिमा भगवान के दांई ओर विराजित है। यानि माता वामांगी न होकर दांई ओर विराजित पूरे जगत का पालन करने वाली देवीय शक्ति के रुप में पूजी जाती है। बद्रीनारायण मंदिर के पिछले भाग में एक शिला है, जिसे धर्मशिला नाम से जाना जाता है। जिसके बांई तरफ एक कुण्ड है। पूर्व दिशा के मैदानी क्षेत्र में भगवान गरुड़ की पाषाण प्रतिमा है। दक्षिण दिशा में गुंबदद्वार और लक्ष्मीजी का मंदिर है। मंदिर के समीप अलकनंदा के तट पर तप्त कुंड है, जिसका जल बहुत गरम होता है। इस कुण्ड में स्नान करने के बाद ही श्रद्धालू भगवान के दर्शन के लिए जाते हैं।

गंगोत्री धाम

पवित्र गंगा का उद्गम स्थल है - गंगोत्री धाम। यह भारत के उत्तराखंड राज्य के उत्तर-काशी में स्थित है। यह हिन्दू धर्म के उत्तर दिशा में स्थित चार धामों में से एक है। गंगोत्री में प्रकृति का वैभवशाली सौंदर्य देखकर आनंद प्राप्त होता है। इस पुण्य भूमि में गंगा का महत्व है। वास्तव में यहां से लगभग १९ किलोमीटर आगे की ओर गंगोत्री ग्लेशियर पर गौमुख नामक स्थान से गंगा निकलती है। इस तीर्थ में गंगा को भागीरथी नाम से जानी जाती है। यहां से निकलकर गंगा जब अलंकनंदा से मिलती है, तो वह गंगा कहलाती है। मूलत: गौमुख ही गंगा का उद्गम स्थल है। किंतु संभवत: गंगोत्री धाम की स्थापना के समय गंगोत्री से गोमुख तक का पूरा क्षेत्र बर्फ से ढका रहता होगा और गंगा इसी गंगोत्री धाम पर निकलती होगी। कालान्तर में बर्फ पिघलने से आज गंगा गौमुख से निकलती दिखाई देती है। वैज्ञानिक भी हिमालय क्षेत्र में बर्फ पिघलने की पुष्टि करते हैं। गंगोत्री का शाब्दिक अर्थ - वह स्थान जहां गंगा उतरी भी माना जाता है। पौराणिक मान्यताओं में गंगा के स्वर्ग से पृथ्वी पर उतरने का उल्लेख है। गंगोत्री मंदिर - गंगोत्री में गंगाजी का भव्य और पवित्र मंदिर है। उत्तराखंड के इस तीर्थ के प्रति हर सनातन धर्म को मानने वाली की अपार श्रद्धा है। गंगाजी का यह मन्दिर गोरखा जनरल अमरसिंह थापा ने १९वी सदी की शुरुआत में बनवाया था। इस मंदिर का बाद में जीर्णोद्वार हुआ। वर्तमान मंदिर जयपुर के राजाओं द्वारा निर्मित माना जाता है। इसके आस-पास छोटा-सा नगर बसा है। मंदिर में गंगा और शंकराचार्य की मूर्तियां है। समीप ही एक शिला है जिसके बारे में माना जाता है कि इसी पर बैठकर भगीरथ ने गंगा को भू-लोक में लाने के लिए तप किया था। कुछ मान्यताओं के अनुसार पाण्डवों ने इस स्थान पर देव यज्ञ किया था। गंगोत्री में साक्षात् बहने वाली गंगा मैया की और किनारे पर स्थित गंगा माता की मूर्ति की पूजा होती है। गंगा की मूर्ति पूजा के पीछे यही भाव है कि गंगा साक्षात् नदी तो है, किंतु गंगा की छबि भक्तों के हृदय में मां की तरह है। अत: मां और मूर्ति की साकार रुप में पूजा की जाती है। अन्य दर्शनीय स्थल - गंगोत्री में एक जल में डूबी शिवलिंग रुप में एक शिला है। जिसके पीछे मान्यता है कि यहां भगवान शिव ने स्वर्ग से उतरी गंगा को अपनी जटा में स्थान दिया था। गंगोत्री से ६ किलोमीटर दूर प्राकृतिक सौंदर्य से समृद्ध नन्दनवन तपोवन भी है। प्राय: पर्वतारोहण करने वाले इसे अपना पड़ाव स्थल बनाते हैं। यहां से लगभग १९ किलोमीटर दूरी पर गोमुख के आकार की गुफा से गंगा निकलती है, जहां जाने के लिए पैदल यात्रा करनी होती है। गौरीकुण्ड और देवघाट भी यहां के प्रमुख दर्शनीय स्थानों में एक है। यहां प्राकृतिक दृश्यों में देवदार के ऊंचे वृक्ष, गंगा के प्रवाह का स्वर, शीतल बर्फीली हवाओं के झोंके और विशाल और ऊंचे पर्वत मन को मोहित करते हैं। यहां गंगा में असंख्य श्रद्धालु स्नान कर मन व तन को पवित्र करते हैं। गंगा को मोक्षदायिनी शक्ति के रुप में पूजा जाता है। गंगा में स्नान और दर्शन कर हर व्यक्ति मन ही मन स्वयं को बड़ा धन्य और सौभाग्यशाली मानता है। हर धर्म में पवित्र भावनाओं के साथ मौन प्रार्थना से कुछ पाने की चाह मान्य है। हिन्दू धर्म का तो सार ही इसी में समाया है। परंपराएं - गंगोत्री में मनाए जाने वाला सबसे मुख्य पर्व गंगा का प्राकट्य उत्सव होता है। यह ज्येष्ठ माह की दशमी को मनाया जाता है। ऐसा माना जाता है इसी दिन गंगा का स्वर्ग से पृथ्वी पर अवतरण हुआ। गंगोत्री के कपाट अक्षय तृतीया के दिन खुलते हैं। यह तिथि अप्रैल के अंतिम या मई के पहले सप्ताह में आती है। वहीं कपाट बंद होने का समय नवम्बर में दिपावली का शुभ दिन होता है। इसलिए यह दिन यहां उत्सव और समारोह के होते हैं। कपाट बंद होने के बाद प्रतिमा को समीप ही मुखवा गांव में ले जाया जाता है। यहां गंगा मां की पूजा अगले ६ माह तक की जाताी है और कपाट खुलने के समय उसी प्रतिमा को लाकर पुन: प्रतिष्ठित किया जाता है। पहुंच के संसाधन - गंगोत्री जाने के लिए वायु मार्ग, रेलमार्ग और सड़क मार्ग की सुविधा उपलब्ध है- वायु मार्ग - गंगोत्री पहुंचने के लिए देहरादून और नई दिल्ली सबसे निकटतम हवाई अड्डे हैं। जहां पहुंचने के बाद रेल मार्ग या सड़क मार्ग से गंगोत्री पहुंचा जा सकता है। रेल मार्ग - गंगोत्री जाने के लिए सबसे प्रमुख रेल्वे स्टेशन हरिद्वार, ऋषिकेश और देहरादून है। सड़क मार्ग - सड़क मार्ग से गंगोत्री हरिद्वार, ऋषिकेश और देहरादून पहुंचा जा सकता है। हरिद्वार से गंगोत्री की दूरी २०० किमी, ऋषिकेश से १७७ किमी तथा देहरादून से २१२ किमी है।

हरिद्वार

सनातन धर्म का दर्शन है कि एको ब्रह्म द्वितीयो नास्ति यानि ईश्वर एक ही है। उनको फिर चाहे ब्रह्मा, विष्णु या शिव के रुप में देखें। यही कारण है कि हिन्दू धर्म में अनेक देवी-देवता होने पर भी धर्मावलंबी सभी को एक ही ब्रह्म का रुप मानकर पूरी श्रद्धा और आस्था के साथ आराधना करते हैं। इसी धर्म भाव को पुष्ट करता है हिन्दू धर्म का पावन तीर्थ हरिद्वार, जिसे लोकभाषा में हरद्वार भी कहा जाता है। शास्त्र और पुराणों में इस नगरी को कुशावर्त, हर द्वार, कपिला और गंगाद्वार के नाम से जाना गया। किंतु हरिद्वार या हरद्वार कहलाने के पीछे यह धारणा रही है कि इस पवित्र स्थान से उत्तराखंड के विभिन्न शैव और वैष्णव तीर्थों की यात्रा शुरु होती है। इस क्षेत्र में शैव तीर्थों में केदारनाथ और वैष्णव तीर्थों में बद्रीनाथ प्रमुख है। शिव को हर नाम और विष्णु को हरि नाम से भी जाना जाता है। यही कारण है कि शैव और वैष्णव तीर्थयात्राओं प्रवेश द्वार होने से पुरातन काल से ही यह हरिद्वार या हरद्वार नाम से प्रसिद्ध हुआ। इसी स्थान पर आकर ही परम पवित्र गंगा नदी पहाड़ों से उतरकर मैदानों में अपनी पवित्रता के साथ फैल जाती है। इस प्रकार हरिद्वार परम ब्रह्म के अलग-अलग स्वरुपों के उपासना स्थलों तक पहुंचने और ईश्वर को पाने का प्रवेश द्वार है। जहां से तीर्थयात्री गंगा में डुबकी लगाकर भावनाओं और मानस की पवित्रता के साथ आगे बढ़ते हैं। प्राचीन पंरपराओं अनुसार मायापुरी, कनखल, ज्वालापुर, भीमगौड़ भी हरिद्वार के ही प्रमुख तीर्थक्षेत्र है। हरिद्वार की पावन नगरी हिन्दू धर्मावलंबियों के लिए धार्मिक अनुष्ठानों और कर्मों का प्रमुख स्थान है। भारत ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया से आए श्रद्धालु हरिद्वार आकर पूजा और प्रार्थना करते हैं। हरिद्वार में हर १२ वें वर्ष में लगने वाले कुंभ मेले में हजारों तीर्थयात्री हर की पौड़ी के पवित्र घाट पर स्नान कर नई मानसिक चेतना पाते हैं। हरिद्वार और कुंभ मेले के पौराणिक महत्व की कथा है कि समुद्र मंथन में निकल अमृत कलश में से अमृत को पाने के लिए देव और दानवों के बीच संघर्ष हुआ। जिससे कलश से अमृत की बूंदे चार स्थानों नासिक, उज्जैन, हरिद्वार और प्रयाग में गिरी। इसलिए इन क्षेत्रों की भूमि पावन और पुण्यमयी मानी जाती है। हरिद्वार में हर छठें वर्ष अद्र्ध कुंभ की भी परंपरा है। हरिद्वार में हर की पौड़ी पर असंख्य श्रद्धालु नित्य होने वाली पावन गंगा नदी की आरती में शामिल होते हैं। आरती के दीपों और गंगा नदी में उनके प्रतिबिम्ब से ऐसी सुनहरी रोशनी पैदा होती है जिससे यहां उपस्थित हर श्रद्धालु का ह्दय भक्ति और आस्था के प्रकाश से रोशन हो जाता है। इसके साथ ही गंगा नदी में प्रवाहित किए गए असंख्य दीपों से गंगा के बहते जल पर सुंदर अध्यात्मिक दृश्य उभरता है। वास्तव में हरिद्वार का पवित्र स्थान और गंगा नदी का जल, उसकी पवित्रता और प्रवाह हर व्यक्ति को जीवन के प्रति जोश, चेतना, मानसिक संबल और विश्वास से भर देता है। यहां आत्मिक आनंद और सुख का अनुभव होता है। पवित्र भूमि और जल का यह मिलन ही हरिद्वार को आस्था और साधना स्थल बनाता है। हिन्दू धर्म में उत्तराखंड को देवभूमि माना जाता है। इसके पीछे कारण यही है कि इस संपूर्ण क्षेत्र में अनेक पवित्र और पावन देवतीर्थ स्थित है। जो धार्मिक दृष्टि से ही मानव को चैतन्य नहीं करते वरन यहां पर पर्वत, नदियां, झरने, हरियाली के रुप में प्रकृति की अद्वितीय सुंदरता भी व्यक्ति के अंदर अध्यात्म, आनंद और ऊर्जा का संचार करती है। ऐसे सुख देने वाले स्थान को हम व्यवहारिक भाषा में स्वर्ग ही कहते हैं। इसी कारण से हरिद्वार भी स्वर्गद्वार कहलाता है। पौराणिक महत्व - पौराणिक महत्व की दृष्टि से हरिद्वार में ब्रहृा, विष्णु और शिव की नगरी है। त्रिदेव से जुड़े अनेक धार्मिक महत्व के देवस्थान है। हरिद्वार में प्रति बारह वर्ष में कुम्भ राशि में बृहस्पति और मेष राशि में सूर्य के योग में कुंभ स्नान करने पर व्यक्ति जन्म-मरण के बंधन से मुक्त हो जाता है। शिव पुराण के अनुसार सती के वैराग्य में घूमते हुए सती देह के अंग ह्दय और नाभि भी इस स्थान पर गिरे। इसलिए हरिद्वार में मायादेवी शक्तिपीठ भी है। भगवान आदि शंकराचार्य ने हिन्दू धर्म के पुर्नजागरण की शुरुआत भी इसी स्थान से की। हिन्दू धर्म का पवित्र तीर्थ हरिद्वार धर्मस्थलों और उत्सवों के लिए अध्यात्मिक आकर्षण का प्रमुख स्थान है। यहां पर अनेक पौराणिक महत्व के मंदिर हैं। हरिद्वार मात्र धार्मिक महत्व ही नहीं रखता बल्कि यह कला, विज्ञान और संस्कृति के प्रमुख केन्द्र के रुप में पूरे विश्व में जाना जाता है। हर की पौड़ी - हरिद्वार का प्रमुख घाट है। मान्यता है कि भगवान विष्णु ने इसी स्थान पर देवताओं और यक्षों को दर्शन दिए थे। इसके प्रमाण में यहां पर भगवान विष्णु के पाषाण पर चरण चिन्ह आज भी देखे जा सकते हैं। इस स्थान पर से गंगा नदी की मुख्य धारा को काटकर बनाई गई गंगा नहर, पक्के घाट बहुत सुंदर और दर्शनीय है। इस घाट पर गंगा आरती धार्मिक दृ़ष्टि से आकर्षण का प्रमुख केन्द्र है। हर की पौड़ी स्थित ब्रह्मकुंड में स्नान का बहुत महत्व है। इसके पीछे पौराणिक कथा है कि एक बार श्वेतकेतु नाम के राजा की घोर तपस्या से ब्रह्मदेव प्रसन्न हुए। उन्होंने राजा से वर मांगने को कहा। तब राजा श्वेतकेतु ने ब्रह्मदेव से वरदान मांगा कि ब्रह्मदेव, विष्णु और शिव के साथ इस स्थान पर सभी तीर्थों का वास हो। साथ ही यह स्थान ब्रह्मदेव के नाम से ही जगत में जाना जाए। ब्रह्देव ने राजा श्वेतकेतु की मनोकामना पूरी होने का आशीर्वाद दिया। तब से यह स्थान ब्रह्मकुंड के नाम से प्रसिद्ध हुआ। साथ ही ऐसा माना जाता है कि हरिद्वार में साढ़े तीन करोड़ तीर्थ का वास है। इसलिए हरिद्वार में स्नान करने पर सभी तीर्थों में स्नान का पुण्य मिलता है। चार धाम तीर्थ की यात्रा से पहले सभी तीर्थयात्री इस घाट पर स्नान करते हैं। हर की पौड़ी घाट पर गंगा मंदिर, नवग्रह, शंकराचार्य एवं बाराखम्भा मंदिर भी धार्मिक महत्व रखते हैं। ऐसा कहा जाता है कि इस घाट का निर्माण राजा विक्रमादित्य ने अपने भाई भर्तृहरि की स्मृति में कराया था। गौ घाट - यह घाट हर की पौडी के दक्षिण में स्थित है। ऐसा माना जाता है कि गाय की हत्या के दोषी इस स्थान पर स्नान करने से पापमुक्त होते हैं। दक्ष प्रजापति का मंदिर - माना जाता है कि हरिद्वार भगवान शिव के रौद्र और सात्विक दोनों स्वरुपों का गवाह है। इस बात की पुष्टि करता है यहां से तीन किलोमीटर दूर कनखल में स्थित दक्ष प्रजापति का मंदिर। माना जाता है कि इस मंदिर में स्थित सतीकुण्ड पर भगवान शंकर और पार्वती की भक्ति भाव से आराधना से भक्त जन्म-मरण के बंधन से मुक्त हो जाता है। इस मंदिर के पीछे शिव पुराण में कथा है कि एक बार प्रजापति दक्ष ने 'बृहस्पतिÓ नामक यज्ञ में अपने पति शिव को आमंत्रित न करने और दक्ष द्वारा शिव की आलोचना से दु:खी और क्रोधित होकर सती ने अपनी देह यज्ञ की अग्रि में त्याग दिया। तब भगवान शिव वहां पहुंचे और सती के ऐसी दशा देखकर क्रोधित हुए । उनके क्रोध से वीरभद्र पैदा हुए । वीरभद्र ने प्रजापति दक्ष का सिर काट दिया। भगवान शिव वियोगी होकर सती की मृत देह को शरीर को अपने कंधे पर रख इधर-उधर घुमने लगे। तब भगवान विष्णु ने उनके वियोग को नष्ट करने के लिए अपने सुदर्शन चक्र से सती के शरीर के टुकड़े कर दिए। सती की मृत देह से अंग हरिद्वार में भी गिरा और यहां शक्तिपीठ बना। ऐसी मान्यता है कि जिस यज्ञ कुण्ड में सती ने अपनी देह का त्याग यिा वह इस मंदिर में स्थित है। कनखल में कोटेश्वर मंदिर भी स्थित है। कनखल हरिद्वार में स्थित पवित्र स्थानों में से एक माना जाता है। मनसादेवी मंदिर - हरिद्वार में स्थित मनसा देवी मंदिर बहुत प्रसिद्ध है। यह शिवालिक पहाडी की चोटी पर स्थित है। इसे बिल्पा पर्वत के नाम से भी जाना जाता है। गंगा के तट से यह मंदिर दिखाई देता है। यह मंदिर इतनी ऊंचाई पर स्थित है कि यहां से हिमालय पर्वत का प्राकृतिक सौंदर्य, गंगा नदी की बहती जलधारा और हरिद्वार का सुंदर दृश्य दिखाई देता है। मनसा माता नाम के अनुरुप ही सभी मनोकामना पूरी करने वाली मानी जाती है। यह आदिशक्ति दुर्गा का ही स्वरुप है। माता की मूर्ति का स्वरुप तीन सिर, पांच भुजाओं वाला है। हरिद्वार में स्थित देवी के यंत्र त्रिकोण में बने तीन मंदिरों में यह मंदिर अधिक महत्व रखता है। मायादेवी मन्दिर - यह भारत में स्थित आदिशक्ति के ५१ शक्तिपीठों में एक मन्दिर माना जाता है। यहां भगवान शिव द्वारा वैराग्य में घूमते हुए सती की मृत देह से नाभि और ह्दय अंग गिरे थे। यह हरिद्वार की अधिष्ठात्री देवी मानी जाती है। यह सिद्धपीठ माना जाता है। यह हरिद्वार में बने सबसे प्राचीन मंदिरों में एक है। इसका निर्माण काल ११वीं सदीं का माना जाता है। चण्डीदेवी मन्दिर - यह त्रिकोणीय क्षेत्र में बने देवी के तीन मंदिरों में एक है। यह गंगा के दूसरे किनारे पर शिवालिक पर्वत के शिखर जिसे नीलपर्वत भी कहा जाता है, पर स्थित है। ऐसा माना जाता है इसका निर्माण काश्मीर के राजा सुचेता सिंह ने कराया। यहां पर श्री हनुमान की माता अंजनीदेवी का मन्दिर भी है। चंडी घाट से इसकी दूरी ३ किलोमीटर मानी जाती है। भीमगोडा मन्दिर व कुण्ड - हर की पौडी से १ किलोमीटर दूर ऋषिकेश के रास्ते पर स्थित है। ऐसी मान्यता है कि पांडवों द्वारा हिमालय की ओर प्रस्थान करते समय भीम ने स्नान करने के लिए इस स्थान पर भूमि पर घुटना या गोड़ा मारकर कुण्ड बनाया और तप किया। सप्तऋषि आश्रम - यह पवित्र स्थान भीमगोडा से लगभग ४ किलोमीटर आगे स्थित है। यह सप्त सरोवर भी कहलाता है। ऐसा माना जाता है कि यहां सप्तऋषियों कश्यप, भारद्वाज, अत्रि, गौतम, जमदग्रि, विश्वामित्र और वशिष्ठ ने तपस्या की थी। जिससे गंगा नदी इस स्थान पर आकर सात धाराओं में बंट गई। कुशावर्त - यह स्थान भगवान दत्तादत्र की तपस्थली के रुप में प्रसिद्ध है। ऐसी मान्यता है कि यहां पर भगवान दत्तात्रय हजारों वर्षों तक तप किया था। इसलिए इस स्थान पर यज्ञ, दान, धर्म-कर्म का बहुत महत्व है। पारद शिवलिंग मंदिर - यह हरिद्वार में हरिहर आश्रम में स्थित है। पारद का शिवलिंग चमत्कारिक और जागृत माना जाता है। इस शिवलिंग का भार लगभग १५० किलो है। यहां पर स्थित रुद्राक्ष का पेड़ भी श्रद्धालुओं का आकर्षित करता है। शांति कुंज - भारतीय समाज को आदर्श जीवन जीने के लिए प्रेरित कर नई दिशा देने वाले पं. श्रीराम शर्मा आचार्य द्वारा स्थापित गायत्री परिवार का मुख्यालय शांतिकुंज यहां पर स्थित है। गुरुकुल कांगडी विश्वविद्यालय - पूरे विश्व यह स्थान अपनी अनूठी शिक्षा परंपरा के लिए अलग पहचान रखता है। यहां पर आज भी गुरु-शिष्य परंपरा अनुसार आज भी वैदिक शिक्षा का दी जाती है। स्वामी श्रद्धानंद द्वारा इस विश्व विद्यालय की स्थापना की गई थी। वह आर्य समाज के अनुयायी थे। हरिद्वार की पवित्र भूमि के गंगा के किनारे बसे होने से वर्ष भर होने वाले पर्व स्नानों, उत्सवों, मेलों और धार्मिक कर्मों के लिए भी पूरे विश्व में प्रसिद्ध है। गंगा दशहरा - हरिद्वार गंगा नदी के पावन तट पर स्थित है। गंगा नदी का अवतरण हिन्दू पंचांग के अनुसार ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की दशमी का माना जाता है। अत: इस तिथि को हरिद्वार में बहुत धार्मिक भाव और श्रद्धा के साथ मनाया जाता है। विशेष रुप से हर की पौड़ी पर गंगा की महा आरती में अपार जनसैलाब एकत्रित होता है। सामान्यत: यह तिथि माह जून-जुलाई में आती है। महाकुम्भ मेला - पौराणिक मान्यताओं के अनुसार हरिद्वार, उज्जैन, प्रयाग और नासिक वह पवित्र तीर्थ है, जहां समुद्र मंथन में निकले अमृत कलश से अमृत पान के लिए देव-दानवों में १२ दिन तक चले संघर्ष के दौरान अमृत की बूंदे छलक कर गिरी। इसीलिए देवताओं के १२ दिन के अनुसार इस युग में प्रति बारह वर्षों में हरिद्वार में जब कुम्भ राशि में बृहस्पति और मेष राशि में सूर्य प्रवेश करता है, तब यहां पर कुंभ स्नान का योग बनता है। जिसमें स्नान करने पर हर व्यक्ति मोक्ष को पाता है। अर्द्धकुंभ - धार्मिक महत्व के समागम में एक अवसर है अर्द्धकुंभ का यह प्रत्येक कुंभ के छ: वर्ष बाद होता है। जो वर्तमान में चल रहे कुंभ के अनुसार वर्ष २०१६ में आएगा। कांवड मेला - हिन्दू पंचांग अनुसार श्रावण और भादौ माह में यानि जुलाई और अगस्त माह में भगवान शिव की आराधना के लिए हजारों शिव भक्त, जो कांवडिया कहलाते हैं, हरिद्वार आकर गंगा का पवित्र जल लेने के लिए पैदल नंगे पैर आते हैं। श्रावण मे शिव पूजा का महत्व है, इसलिए गंगा के जल लेकर अपने प्रसिद्ध शिव स्थलों पर ले जाकर वह गंगा जल अर्पित करते हैं। नवरात्रि - हरिद्वार में मायादेवी का शक्तिपीठ प्रसिद्ध है। आदिशक्ति का सिद्धपीठ होने से यहां पर नवरात्रि विशेष श्रद्धा और आस्था से मनाई जाती है। विशेषकर चैत्र और आश्विन की नवरात्रि जो मार्च-अप्रैल तथा अक्टूबर में मनाई जाती है। महाशिवरात्रि - हर या शिव तीर्थ की यात्रा और शिव का स्थान होने से भी हरिद्वार में शिव पूजा का बहुत महत्व है। इसलिए शिव की प्रिय रात्रि महाशिवरात्रि जो हिन्दू पंचांग अनुसार माघ माह यानि फरवरी में आती है, बड़ी भक्ति और भावना से मनाई जाती है। इन बड़े अवसरों पर होने वाले मेलों, उत्सवों के साथ ही हरिद्वार के पवित्र स्थान पर वर्ष भर पर्व स्नान होते हैं। जिनमें बड़ी संख्या में हिन्दू धर्मावलंबी स्नान, धर्म, कर्म कर पुण्य पाकर स्वयं को कृत्य-कृत्य अनुभव करते हैं। हिंदू पंचाग के बारह मास में पवित्र स्नानों की परंपरा है। किंतु इनमें कुछ मास विशेष फल देने वाले माने जाते हैं। इनमें वैशाख की प्रतिपदा या एकम तिथि, कार्तिक पूर्णिमा और आषाढ़ मास की दशमी तिथि को स्नान पुण्य देने वाला माना जाता है। इसके अलावा हर माह की एकादशी, पर्व स्नानों में मकर संक्रांति, अमावस्या का बहुत धार्मिक महत्व है। सूर्य और चंद्रग्रहण होने पर भी हरिद्वार में स्नान का विशेष महत्व है। पहुंच के संसाधन - वायु मार्ग - हरिद्वार से निकटतम हवाई अड्डे देहरादून और नई दिल्ली है। नई दिल्ली से अनेक घरेलू विमान सेवाएं देहरादून तक कुछ विशेष दिनों पर उपलब्ध होती है। रेल मार्ग - हरिद्वार के निकटतम रेल्वे स्टेशन देहरादून और ऋषिकेश हैं। हरिद्वार देश के सभी बड़े शहरों से रेल मार्ग से जुड़ा है। सड़क मार्ग - हरिद्वार से राष्ट्रीय राजमार्ग - ४५ गुजरता है। इसलिए यह भारत के सभी प्रमुख शहरों से सड़क मार्ग द्वारा जुड़ा है। हरिद्वार की देहरादून से दूरी लगभग ५० किलोमीटर और ऋषिकेश से लगभग २४ किलोमीटर दूर है।

ललिता देवी शक्तिपीठ - इलाहाबाद


ललिता देवी शक्तिपीठ -  इलाहाबाद 


यह शक्तिपीठ इलाहाबाद के प्रयाग में है। वैसे तो अलोपीदेवी स्थित ललितादेवी ही शक्तिपीठ है लेकिन अक्षयवट के पास कल्याणी या ललिता देवी का मंदिर है, इसे भी शक्तिपीठ माना जाता है। कुछ लोग मीरापुर के ललितादेवी मंदिर को भी शक्तिपीठ मानते हैं। लेकिन इतना तय है कि देवी सती के शरीर के अंग प्रयाग में गिरे थे। इसीलिए प्रयाग को तीर्थराज के अलावा शक्तिपीठ भी माना जाता है। देवी का यह मंदिर बड़ा ही मनोरम है। मुख्य प्रतिमा के पास अन्य देवी-देवताओं की प्रतिमाएं भी हैं। पुराणों के अनुसार प्रयाग में भगवती ललिता का स्थान अक्षयवट प्रांगण से वायव्यकोण यानी उत्तर-पश्चिम कोने में यमुना नदी के किनारे पर है। प्रयाग माहात्मय के अनुसार ललिता और कल्याणी दोनों एक ही हैं। कौनसा अंग गिरा- हाथ की अंगुली, शक्ति- ललिता, भैरव- भव

मंदिर में देवी की प्रतिमा बड़ी ही दिव्य है। देवी चतुर्भुज रूप में एक सिंहासन पर विराजमान हैं। इसके ऊपर शीर्ष भाग में एक आभाचक्र और मस्तक पर योनि, लिंग व फणींद्र हैं। मध्यमूर्ति के बाएं पाश्र्व भाग में दस महाविद्याओं में से एक भगवती छिन्नमस्ता की सुंदर प्रतिमा भी है। दाहिनी ओर महादेव और माता पार्वती की प्रतिमाएं हैं। मुख्य प्रतिमा के ऊपर दाहिनी ओर गणेश तथा बायीं ओर हनुमान विराजमान हैं। ऊपर की ही ओर भगवान दत्तात्रेय की मूर्ति भी है। ललितादेवी मंदिर के पास ही ललितेश्वर शिव हैं।

त्रिवेणी संगम से थोड़ी दूर किले के अंदर अक्षयवट है। किले के यमुना किनारे वाले भाग में अक्षयवट का दर्शन सप्ताह में दो दिन सबके लिए खुला रहता है। कुछ समय पूर्व किले की पातालपुरी गुफा में एक सूखी डाल पर कपड़ा लपेटकर रखा जाता था। इसी को अक्षयवट कहकर दर्शन कराया जाता था। इसे पातालपुरी मंदिर भी कहते हैं। कहते हैं कि इस स्थान की भूमि के नीचे कई देवी-देवताओं की मूर्तियां हैं। प्रयाग के तीर्थस्थानों में अक्षयवट का बड़ा महत्व है। जैन समाज के लोग भी इसे पवित्र स्थान मानते हैं। ऐसी मान्यता है कि इसके नीचे ऋषभदेवजी ने तपस्या की थी।

महत्वऐसा माना जाता है कि प्रयाग में देवी के हाथों की अंगुलियां गिरने से फ आकार की उत्पत्ति हुई थी। यहां दर्शन एवं पूजा-आराधना करने से हमारे जीवन के दु:ख दूर होते हैं। यहां शक्ति उपासना का भी बड़ा महत्व है।

प्रयाग एक महत्वपूर्ण तीर्थस्थान है। इसे तीर्थराज भी माना जाता है। गंगा-यमुना की धारा ने पूरे प्रयाग को तीन हिस्सों में विभाजित कर रखा है। कहते हैं कि इन तीनों भागों में पवित्र होकर एक-एक रात रहने से तीन अग्रियों की उपासना का फल मिलता है। ये अग्रियां हैं- गार्हस्पत्याग्नि, आहवनीय अग्रि और दक्षिणाग्रि। यहां माघ माह में मेला लगता है। इसे कल्पवास के नाम से जाना जाता है। हर साल यहां बहुत से श्रद्धालु गंगा-यमुना के मध्य में कल्पवास करते हैं। बारह बरस में एक बार यहां कुंभ मेला भी लगता है। जब बृहस्पति वृष राशि में और सूर्य मकर राशि में होता है तब यह मेला लगता है। कुंभ के छह महीने बाद अर्धकुंभी मेला भी लगता है। प्रयाग की परिक्रमा करने का भी महत्व है। परिक्रमा दो तरह से होती है। एक अंतर्वेदी जो दो दिनों में और दूसरी बहिर्वेदी जो कि दस दिनों में पूरी होती है। ऐसा कहते हैं कि प्रयाग में गंगा-यमुना के संगम में स्नान करने से व्यक्ति के सभी दु:ख दूर होते हैं। प्रयाग में मुंडन भी कराया जाता है। त्रिवेणी संगम के पास एक स्थान पर मुंडन कराया जाता है। विधवा महिलाएं भी यहां मुंडन कराती हैं। सौभाग्यवती महिलाएं यहां वेणी का दान करती हैं।

कैसे जाएंप्रयाग केंद्र स्थान होने के कारण वहां आसानी से पहुंचा जा सकता है। इलाहाबाद तक रेल द्वारा पहुंच सकते हैं। इसके बाद बस या अन्य लोक परिवहन के साधनों द्वारा पहुंच सकते हैं।

हनुमानजी का दुर्लभ मंदिर प्रयाग में कई दर्शनीय स्थल हैं। इनमें किले के पास हनुमानजी का मंदिर है। यहां जमीन पर लेटी हनुमानजी की प्रतिमा है। इसके पास ही मनकामनेश्वर शिव मंदिर है। यमुना के पार अरैलग्राम में भगवान शिव का छोटा-सा सोमनाथ मंदिर है। दारागंज में नागवासुकि, गंगा किनारे बलदेवजी और शिवकुटी है। करनलगंज में भरद्वाज आश्रम, गंगापार मुंशी के बाग में बिंदुमाधव के दर्शन होते हैं।

काशी विशालाक्षी शक्तिपीठ - वाराणसी

हिन्दु धर्म में देवी के ५१ शक्तिपीठों में यह शक्तिपीठ उत्तरप्रदेश के वाराणसी जिले के मीरधार में स्थित है। शक्ति की उपासना एवं दर्शन-पूजन के लिए इस पीठ का बहुत महत्व है। पुरातन काल में वाराणसी का नाम काशी था। इसलिए यह शक्तिपीठ काशी विशालाक्षी के नाम से भी प्रसिद्ध है। यहां बारह ज्योर्तिंलिंग में से एक विश्वनाथ भी विराजित हैं। इस प्रकार इस क्षेत्र में शिव और शक्ति दोनों ही प्रतिष्ठित है। इसलिए माना जाता है कि यहां के दर्शन से मनुष्य समस्त कष्ट और पीड़ाओं से मुक्त होकर शिवधाम प्राप्त करता है। यहां सती की देह में से कर्ण कुण्डल गिरा था। यहां पर शक्ति विशालाक्षी के स्वरुप में और भैरव कालभैरव का रुप धारण कर प्रतिष्ठित हैं।

यहां मंदिर के समीप गंगा तीर्थ है। जिसमें स्नान के बाद देवी विशालाक्षी के दर्शन की परंपरा है। प्रति माह शुक्ल पक्ष की तृतीया को देवी दर्शन का विशेष महत्व है। दर्शन के अन्य विधानों में काशी में दक्षिण दिग्यात्रा क्रम में 11वें क्रम पर और चैत्र नवरात्र में नवगौरी दर्शन के क्रम में पंचमी तिथि को देवी के दर्शन किए जाते हैं।

महत्व - पुराणों में देवी को गंगा स्नान के बाद धूप, दीप, सुगंधित हार व मोतियों के आभूषण, नवीन वस्त्र आदि चढ़ाने का महत्व बताया गया है । ऐसी पौराणिक मान्यता है कि देवी विशालाक्षी की पूजा उपासना से सौंदर्य और धन की प्राप्ति होती है। यहां दान, जप और यज्ञ करने पर मुक्ति प्राप्त होती हैं।

यात्रा का समय - देवी दर्शन के लिए वाराणसी जाने के लिए उचित समय माह अक्टूबर से माह मार्च के बीच है। साधारणत: वर्षाकाल को छोड़कर वर्ष में किसी भी समय यात्रा करना सुखद होता है।

पहुंच के संसाधन -वाराणसी जाने के लिए देश के सभी प्रमुख शहरों से रेल, बस सेवा उपलब्ध है। इलाहाबाद और लखनऊ तक वायुसेवा भी है। यहां से वाराणसी के लिए प्रति घंटा बस सेवा उपलब्ध है।

वैष्णो देवी


पूरे जगत में माता रानी के नाम से जानी जाने वाली माता वैष्णोदेवी का जागृत और पवित्र मंदिर भारत के जम्मू कश्मीर राज्य के उधमपुर जिले में कटरा से १२ किलोमीटर दूर उत्तर पश्चिमी हिमालय के त्रिकूट पर्वत पर स्थित है। यह एक दुर्गम यात्रा है। किंतु आस्था की शक्ति सब कुछ संभव कर देती है। माता के भक्तों की आस्था और विश्वास के कारण ही ऐसा माना जाता है कि माता के बुलावे पर ही कोई भी भक्त दर्शन के लिए वैष्णो देवी के भवन तक पहुंच पाता है। व्यावहारिक दृष्टि से माता वैष्णो देवी ज्ञान, वैभव और बल का सामुहिक रुप है। क्योंकि यहां आदिशक्ति के तीन रुप हैं - पहली महासरस्वती जो ज्ञान की देवी हैं, दूसरी महालक्ष्मी जो धन-वैभव की देवी और तीसरी महाकाली या दुर्गा शक्ति स्वरुपा मानी जाती है। जीवन के धरातल पर भी श्रेष्ठ और सफल बनने और ऊंचाईयों को छूने के लिए विद्या, धन और बल ही जरुरी होता है। जो मेहनत और परिश्रम के द्वारा ही संभव है। माता की इस यात्रा से भी जीवन के सफर में आने वाली कठिनाईयों और संघर्षों का सामना कर पूरे विश्वास के साथ अपने लक्ष्य को प्राप्त करने की प्रेरणा और शक्ति मिलती है। 

कथा - पौराणिक मान्यताओं में जगत में धर्म की हानि होने और अधर्म की शक्तियों के बढऩे पर आदिशक्ति के सत, रज और तम तीन रुप महासरस्वती, महालक्ष्मी और महादुर्गा ने अपनी सामूहिक बल से धर्म की रक्षा के लिए एक कन्या प्रकट की। यह कन्या त्रेतायुग में भारत के दक्षिणी समुद्री तट रामेश्वर में पण्डित रत्नाकर की पुत्री के रुप में अवतरित हुई। लगभग ९ वर्ष की होने पर उस कन्या को जब यह मालूम हुआ है भगवान विष्णु ने भी इस भू-लोक में भगवान श्रीराम के रुप में अवतार लिया है। तब वह भगवान श्रीराम को पति मानकर उनको पाने के लिए कठोर तप करने लगी। जब श्रीराम सीता हरण के बाद सीता की खोज करते हुए रामेश्वर पहुंचे। तब समुद्र तट पर ध्यानमग्र कन्या को देखा। उस कन्या ने भगवान श्रीराम से उसे पत्नी के रुप में स्वीकार करने को कहा। भगवान श्रीराम ने उस कन्या से कहा कि उन्होंने इस जन्म में सीता से विवाह कर एक पत्नीव्रत का प्रण लिया है। किंतु कलियुग में मैं कल्कि अवतार लूंगा और तुम्हें अपनी पत्नी रुप में स्वीकार करुंगा। उस समय तक तुम हिमालय स्थित त्रिकूट पर्वत की श्रेणी में जाकर तप करो और भक्तों के कष्ट और दु:खों का नाश कर जगत कल्याण करती रहो। 

इसी प्रकार एक अन्य पुरातन कथा के अनुसार - 

वर्तमान कटरा के पास हंसाली गांव में मां वैष्णवी के परम अनुयायी श्रीधर रहते थे। वह नि:संतान होने से दु:खी रहते थे। एक बार उसने नवरात्रि पूजा में कन्या पूजन हेतु कन्याओं को बुलाया। उन कन्याओं के साथ माता वैष्णोंदेवी भी आई। पूजन के बाद सभी कन्याएं तो चली गई पर माँ वैष्णोदेवी वहीं रहीं और श्रीधर से कहा कि पूरी बस्ती को भोजन करने का बुलावा दे दो। श्रीधर ने उस कन्या रुपी माँ वैष्णवी की बात मानकर पूरे गांव को भोजन के लिए निमंत्रण देने चला गया। वहां से लौटकर आते समय बाबा भैरवनाथ और उनके शिष्यों को भी भोजन का निमंत्रण दिया। भोजन का निमंत्रण पाकर सभी गांववासी अचंभित थे कि वह कौन सी कन्या है जो सभी को भोजन करवा रही है। 

इसके बाद श्रीधर के घर में अनेक गांववासी आकर भोजन के लिए एकत्रित हुए। तब कन्या रुपी माँ वैष्णोदेवी ने सभी को भोजन परोसना शुरु किया। भोजन परोसते हुए जब वह कन्या भैरवनाथ के पास गई। तब उसने कहा कि मैं तो मांस भक्षण और मदिरापान करुंगा। तब कन्या रुपी माँ ने उसे समझाया कि यह ब्राह्मण के यहां का भोजन है, इसमें मांसाहार नहीं किया जाता। किंतु भैरवनाथ ने जान-बुझकर अपनी बात पर अड़ा रहा। तब माँ ने उसके कपट को जान लिया। माँ ने वायु रुप में बदलकर त्रिकूट पर्वत की ओर चली गई। भैरवनाथ भी उनके पीछे गया। माना जाता है कि माँ की रक्षा के लिए पवनपुत्र हनुमान भी थे। इस दौरान माता ने एक गुफा में प्रवेश कर नौ माह तक तपस्या की। भैरवनाथ भी उनके पीछे वहां तक आ गया। तब एक साधु ने भैरवनाथ से कहा कि तू जिसे तू एक कन्या समझ रहा है, वह आदिशक्ति जगदम्बा है। इसलिए उस महाशक्ति का पीछा छोड़ दे।

भैरवनाथ साधु की बात नहीं मानी। तब माता गुफा के दूसरे मार्ग से बाहर निकली। यह गुफा आज भी अद्र्धकुंवारी या गर्भजून के नाम से प्रसिद्ध है। गुफा से बाहर निकल कर कन्या ने देवी का रुप धारण किया। माता ने भैरवनाथ को चेताया और वापस जाने को कहा। फिर भी वह नहीं माना। माता गुफा के भीतर चली गई। तब तक वीर हनुमान ने भैरव से युद्ध किया। भैरव ने फिर भी हार नहीं मानी तब माता वैष्णवी ने महाकाली का रुप लेकर भैरवनाथ का संहार कर दिया। भैरवनाथ का सिर कटकर त्रिकूट पर्वत की भैरव घाटी में गिरा। मृत्यु के पूर्व भैरवनाथ ने माता से क्षमा मांगी। तब माता ने उसे माफ कर वर भी दिया कि मेरा जो भी भक्त मेरे दर्शन के बाद भैरवनाथ के दर्शन करेगा उसके सभी मनोरथ पूर्ण होंगे। तब से आज तक अनगिनत माता के भक्त माता वैष्णोंदेवी के दर्शन करने के लिए आते है। 

माता का भवन - माता वैष्णों देवी का पवित्र स्थान माता रानी के भवन के रुप में जाना जाता है। यहां पर ३० मीटर लंबी गुफा के अंत में महासरस्वती, महालक्ष्मी और महादुर्गा की पाषाण पिण्डी हैं। इस गुफा में सदा ठंडा जल प्रवाहित होता रहता है। कालान्तर में सुविधा की दृष्टि से माता के दर्शन हेतु अन्य गुफा भी बनी हैं। 

दर्शनीय स्थान - 

माता वैष्णोदेवी के दर्शन के पूर्व माता से संबंधित अनेक दर्शनीय स्थान हैं। 

चरण पादुका - यह वैष्णों देवी दर्शन के क्रम में पहला स्थान है। जहां माता वैष्णो देवी के चरण चिन्ह एक शिला पर दिखाई देते हैं।

बाणगंगा - भैरवनाथ से दूर भागते हुए माता वैष्णोदेवी ने एक बाण भूमि पर चलाया था। जहां से जल की धारा फूट पड़ी थी। यही स्थान बाणगंगा के नाम से प्रसिद्ध है। वैष्णोदेवी आने वाले श्रद्धालू यहां स्नान कर स्वयं का पवित्र कर आगे बढ़ते हैं। 

अद्र्धकुंवारी या गर्भजून - यह माता वैष्णों देवी की यात्रा का बीच का पड़ाव है। यहां पर एक संकरी गुफा है। जिसके लिए मान्यता है कि इसी गुफा में बैठकर माता ने ९ माह तप कर शक्ति प्राप्त की थी। इस गुफा में गुजरने से हर भक्त जन्म-मरण के बंधन से मुक्त हो जाता है। 

सांझी छत - यह वैष्णोदेवी दर्शन यात्रा का ऐसा स्थान है, जो ऊंचाई पर स्थित होने से त्रिकूट पर्वत और उसकी घाटियों का नैसर्गिक सौंदर्य दिखाई देता है।

भैरव मंदिर - यह मंदिर माता रानी के भवन से भी लगभग डेढ़ किलोमीटर अधिक ऊंचाई पर स्थित है। ऐसा माना जाता है कि माता द्वारा भैरवनाथ को दिए वरदान के अनुसार यहां के दर्शन किए बिना वैष्णों देवी की यात्रा पूर्ण नहीं मानी जाती है। 

वैदिक ग्रंथों में त्रिकूट पर्वत का उल्लेख मिलता है। इसके अलावा महाभारत में भी अर्जुन द्वारा जम्बूक्षेत्र में वास करने वाली माता आदिशक्ति की आराधना का वर्णन है। मान्यता है कि १४वीं सदी में श्रीधर ब्राह्मण ने इस गुफा को खोजा था। 

उत्सव-पर्व - 

माता वैष्णो देवी में वर्ष भर में अनेक प्रमुख उत्सव पूरी श्रद्धा और भक्ति के साथ मनाएं जाते हैं। 

नवरात्रि - माता वैष्णोदेवी में चैत्र और आश्विन दोनों नवरात्रियों में श्रद्धालुओं का सैलाब उमड़ता है। इस काल में यहां पर यज्ञ, रामायण पाठ, देवी जागरण आयोजित होते हैं। 

दीपावली - दीपावली के अवसर पर भी माता का भवन दीपों से जगमगा जाता है। यह उत्सव अक्टूबर - नवम्बर में मनाया जाता है। इसी माह में जम्मू से कुछ दूर भीरी मेले का आयोजन होता है। 

माघ मास में श्रीपंचमी के दिन महासरस्वती की पूजा भी बड़ी श्रद्धा और भक्ति से की जाती है। 

जनवरी में ही लोहड़ी का पर्व और अप्रैल माह में वैशाखी का पर्व यहां बहुत धूमधाम से मनाया जाता है। जिनमें स्नान, नृत्य और देवी पूजा का आयोजन होता है। 

पूजा का समय :- 

माता वैष्णो देवी की नियमित पूजा होती है। यहां विशेष पूजा का समय सुबह ४:३० से ६:०० बजे के बीच होती है। इसी प्रकार संध्या पूजा सांय ६:०० बजे से ७:३० बजे तक होती है। 

पहुंच के संसाधन - 

वायु मार्ग - माता वैष्णोदेवी के दर्शन हेतु सबसे पास हवाई अड्डे जम्मू और श्रीनगर के हैं। 

रेलमार्ग - रेल मार्ग से वैष्णोदेवी पहुंचने के लिए जम्मूतवी, पठानकोट और अमृतसर प्रमुख रेल्वे स्टेशन है। जहां से कटरा सड़क मार्ग द्वारा पहुंचा जा सकता है। 

सड़क मार्ग - वैष्णोदेवी के दर्शन हेतु श्रीनगर, जम्मू, अमृतसर से कटरा पहुंचा जा सकता है। जहां से वैष्णोदेवी का भवन १२ किलोमीटर दूर है। 

सलाह - इस स्थान पर दिसम्बर से जनवरी के बीच शून्य से नीचे हो जाता है और बर्फबारी भी होती है। इसलिए यात्रा के लिए उचित समय को चूनें।

मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंङ्ग - दक्षिण का कैलाश


मल्लिकार्जुन - दक्षिण का कैलाश 

भगवान शिव का दूसरा ज्योतिर्लिंङ्ग आंध्रप्रदेश के कर्नूल जिले में कृष्णा नदी के किनारे श्री शैलम् पहाड़ी पर स्थित है। यह हैदराबाद से लगभग २१० किलोमीटर दूर स्थित है। भगवान शिव का यह पवित्र मंदिर नल्लामलाई की आकर्षक पहाड़ी की चोटी पर स्थित है। श्री सेलम का यह क्षेत्र बहुत धार्मिक और पौराणिक महत्व रखता है। यहां पर भगवान शिव के बारहवें ज्योर्तिंलिंग के साथ ही महाशक्तियों में एक भ्रमराम्बा देवी भी विराजित है। शिव और शक्ति के दोनों रुप स्वयंभू माने जाते हैं। इस पहाड़ी को श्री पर्वत, मलया गिरि और क्रौंच पर्वत भी कहते हैं। इसे दक्षिण का कैलाश भी कहते हैं । 

मंदिर - श्री सेलम पहाड़ी पर स्थित श्री मल्लिकार्जुन का यह मंदिर एक किले की भांति दिखाई देता है और अपनी सुंदर कलाकृतियों से समृद्ध है। मंदिर का प्रवेश द्वार पूर्व दिशा की ओर है, जिसके सामने नंदी की विशाल मूर्ति है। मंदिर में अनेक सुंदर कलाकृतियां बनी है, जो परिसर को आकर्षक बनाती है। यहां संत बृंगी की तीन पैरों पर खड़ी कलाकृति भी आकर्षक का केन्द्र है। इसके पीछे ऐसी मान्यता है कि संत बृंगी द्वारा मात्र शिव की भक्ति करने से माता पार्वती ने नाराज होकर संत को कंकाल बन जाने का श्राप दे दिया। किंतु भगवान शिव के मनाने पर माता पार्वती ने संत का खड़े रहने के लिए तीसरा पैर दे दिया। 

मंदिर के गर्भगृह में भगवान शिव का पाषाण लिंग विराजित है। मुख्य मंडप में विजयनगर शैली में की गई शिल्पकला स्तंभों पर दिखाई देती है। शिव का गण नंदी एक अलग मंडप में विराजित है। यहां नटराज और सहस्त्रलिंग का एक छोटा मंदिर भी स्थित है। यहां पर सहस्त्र लिंग की प्रतिमा आकर्षण का केन्द्र है। मुख्य लिंग २५ मुखों में विभाजित है और यह २५ मुख में प्रत्येक फिर से ४० लिंगों को दर्शाता है। इस प्रकार कुल १००० लिंगों के होने से यह लिंग सहस्त्र यानि हजार लिंग कहलाता है। इस लिंग के चारों ओर तीन मुखों वाला नाग भी उकेरा गया है। 

भगवान मल्लिकार्जुन के इस मंदिर के कुछ दूरी पर माता भ्रमराम्बा का मंदिर स्थित है। माता मल्लिकार्जुन की अद्र्धांगिनी है। ऐसा माना जाता है माता भ्रमराम्बा एक मक्खी के रुप यहां पर भगवान शिव की उपासना करती है। यहां भगवान शिव के मल्लिकार्जुन नाम में में मल्लिका का मतलब पार्वती और अर्जुन का अर्थ शिव होता है। शिवरात्रि के दिन इनकी पूजा और आराधना का धार्मिक महत्व है। माना जाता है कि आदिगुरु शंकराचार्य ने इस मंदिर में आकर भगवान मल्लिकार्जुन की भक्ति में प्रसिद्ध शिवानंद लहरी और माता भ्रमराम्बा की स्तुति में भ्रमराम्बिका अष्टकम गाया था। 


पहुंच के संसाधन 

बस सुविधा- आंध्रप्रदेश की राजधानी हैदराबाद से श्री शैलम् के लिए बस सुविधा उपलब्ध है। मंदिर तक पहुंचने के लिए पैदल या अन्य साधनों (बैलगाड़ी एवं पालकी) से जा सकते हैं।

रेल सुविधा- हैदराबाद, विजयनगर और कर्नूल तक रेल सुविधा उपलब्ध है। सबसे पास का रेलवे स्टेशन मार्कापुर है जो करीब सौ किमी दूर है। 

वायुसेवा- हैदराबाद में हवाई अड्डा है। यह हवाई अड्डा दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, तिरुपति, चैन्नई, भुवनेश्वर, पुणे आदि शहरों से जुड़ा है।

कब जाएं- नवंबर से फरवरी माह तक के मौसम में मल्लिकार्जुन जाना अच्छा रहता है। 

सलाह :- यह तीर्थ पहाडी स्थल पर स्थित है । इसलिए यात्रा दुर्गम होती है । चढाई के दौरान पानी की समस्या हो सकती है । इसलिए यात्रीगण अपने साथ मीठा पानी ले सकते हैं । पालकी आदि पर यात्रा वृद्ध यात्री के लिये जोखिम भरा हो सकता है।

वृंदावन

भक्ति मार्ग की तीन धाराएं मानी जा सकती है - गायन, नृत्य और रुदन या रोना। जिनके द्वारा भक्त भगवान से जुड़ जाता है। भक्ति मार्ग की इन तीन धाराओं का हर रूप भगवान भगवान श्रीकृष्ण के जीवन और लीलाओं का प्रमुख स्थान वृंदावन और उसके आसपास के क्षेत्रों में श्रीकृष्ण के अनेक मंदिरों में देखा जा सकता है। यह सभी मंदिर श्रीकृष्ण भक्ति को ही समर्पित हैं।

इस्कॉन मंदिर - योगेश्वर श्री कृष्ण की नगरी वृदांवन का इस्कॉन मंदिर श्रीकृष्ण बलराम मंदिर के नाम से प्रसिद्ध है। इस मंदिर की स्थापना श्रीकृष्ण के परम भक्त भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद द्वारा सन १९७५ में रामनवमी के शुभ दिन की गई। यह मंदिर उत्तर वृंदावन, उत्तरप्रदेश के रमन रेती क्षेत्र में स्थित है। यह स्थान भगवान श्रीकृष्ण के जीवन से जुड़ा है। ऐसी मान्यता है कि भगवान श्रीकृष्ण और उनके बड़े भाई बलराम यमुना के किनारे रमन रेती में अपनी गायों को चराने लाया करते थे। मंदिर तीन भागों में बना है। पहले भाग में श्री चैतन्य महाप्रभु के अवतार माने जाने वाले श्री श्री गोरा निताई और पश्चिम बंगाल में जन्में श्री नित्यानंद महाप्रभु का पूजन होता है। मध्य भाग में भगवान श्री कृष्ण और उनके बड़े भाई बलराम की प्रतिमाएं हैं। तीसरे भाग में भगवान श्री श्री राधा श्यामसुंदर और उनकी प्रिय गोपियां ललिता और विशाखा की प्रतिमाएं स्थापित है। सन् १९७५ में पूज्य श्री प्रभुपाद के वृंदावन को कृष्ण भक्ति का अंतराष्ट्रीय केन्द्र बनाने की इच्छा इस मंदिर परिसर का विस्तार किया गया। मुख्य मंदिर परिसर की दीर्घा में भगवान श्री कृष्ण के जीवन से जुड़ी घटनाओं को खुबसूरत पेंटिग द्वारा सजाया गया है। पूरे विश्व के श्रीकृष्ण भक्त और इस्कॉन अनुयायी यहां आकर मंदिर में आयोजित होने वाले धार्मिक अनुष्ठानों में शामिल होते हैं और श्री कृष्ण की भक्ति में डूबकर परम आनंद को महसूस करते हैं।

इस्कॉन संप्रदाय के इस मंदिर में एक पुरातन काल के गुरुकूल परंपराओं की भांति आवासीय विद्यालय है। जिसमें पहली से लेकर सातवीं स्तर की कक्षाओं तक अध्ययन कराया जाता है। इस विद्यालय में गुरुकूल के समान शिक्षण प्रणाली है, जिसमें छात्र और शिक्षक एक ही विद्यालय परिसर में रहते हैं। जिससे इस विद्यालय में विद्यार्थी अपने गुरु को देखकर संस्कारित होता है। मंदिर परिसर में बाहर से आए श्रद्धालूओं के ठहरने के लिए विश्राम गृह बने हैं। जिससे वह मंदिर में हर रोज होने वाले धार्मिक रीति-रिवाजों और आयोजनों में बिना किसी असुविधा के शामिल हो सके।

बांके बिहारी मंदिर - भगवान श्रीकृष्ण का यह मंदिर वृंदावन के साथ ही पूरे भारत में प्रसिद्ध है। इसका मंदिर निर्माण सन् १८६४ में पूर्ण हुआ। श्री बांकेबिहारी को कृष्ण भक्त स्वामी हरिदास द्वारा प्रतिष्ठित किया गया। स्वामी हरिदास अपने भक्तिमय भजन के साथ ही इतिहास प्रसिद्ध संगीतकार तानसेन के गुरु के रुप में भी जाने जाते हैं।

द्वारकाधीश मंदिर - वल्लभाचार्य संप्रदाय का मथुरा के पूर्वी भाग में स्थित यह मंदिर श्रीकृष्ण भक्तों और पर्यटकों में सबसे लोकप्रिय है। जहां प्रतिदिन हजारों लोग श्रीकृष्ण के दर्शन के लिए यहां आते हैं। यह मंदिर नगर के मध्य स्थित है। इसका निर्माण सन १८१४ में पूर्ण हुआ। इस मंदिर से कुछ ही दूरी पर यमुना नदी प्रवाहित होती है। इस मंदिर वास्तुकला का सुंदर नमूना है। इसमें की गई नक्काशी और चित्रकारी भी भक्तों के आकर्षण का केन्द्र है। इस मंदिर में होली, दीपावली और श्री कृष्ण जन्माष्टमी के अवसरों पर धार्मिक गतिविधियां होती है। जिसमें श्रीकृष्ण भक्तों को अपार जनसैलाब उमड़ता है।

राधा मदन मोहन मंदिर - श्री कृष्ण का यह मंदिर वृंदावन में बनाया गया प्रथम श्रीकृष्ण मंदिर माना जाता है। इसकी स्थापना श्री सनातन गोस्वामी द्वारा की गई थी। उस समय इस स्थान पर वन क्षेत्र होता था। ऐसा माना जाता है कि कट्टरपंथी मुगल शासक के वृंदावन पर आक्रमण के समय भगवान मदनमोहन की मूल प्रतिमा को बचाने के लिए राजस्थान के करौली ले जाया गया।

सेवाकुंज - सेवाकुंज वह स्थान है, जिसके पीछे मान्यता है कि इस स्थान पर श्रीकृष्ण और राधा, गोपियों के साथ रासलीला किया करते थे। यहां पर राधा-कृष्ण का एक छोटा मंदिर भी स्थापित है।

राधावल्लभ भवन - यह वृंदावन का एक और लोकप्रिय मंदिर है। इसकी स्थापना हरिवंश गोस्वामी द्वारा की गई थी। हरिवंश गोस्वामी राधारानी की भक्ति को समर्पित राधावल्लभ संप्रदाय के संस्थापक माने जाते हैं। इस मंदिर की विशेषता है कि यहां राधारानी की कोई प्रतिमा नही है, किंतु उनकी उपस्थिति को दर्शाने के लिए श्रीकृष्ण की प्रतिमा के सामने एक मुकूट रखा गया है। राधा वल्लभ का पहला मंदिर मुस्लिम आक्रमण में १६७० में नष्ट कर दिया गया था। उस मंदिर के स्थान पर यह नवीन मंदिर निर्मित है।

जयपुर मंदिर - यह वृंदावन के सबसे वैभवशाली मंदिरों में एक है। इसका निर्माण जयपुर के महाराजा माधव द्वारा कराया गया। यह मंदिर १९१७ में बनकर तैयार हुआ और इसके निर्माण में ३० वर्ष लगे। यह मंदिर बलुआ पत्थर पर की गई हस्तशिल्प और नक्काशी का सुंदरतम नमूना है। इस मंदिर में संगमरमर पर मुगल वास्तुकला की भी झलक देखने को मिलती है। इस मंदिर के निर्माण के लिए महाराजा ने पत्थर और अन्य निर्माण सामग्री लाने के लिए रेल लाईन का निर्माण कराकर वृंदावन को मथुरा से जोड़ दिया। इस मंदिर में प्रमुख रुप से श्री राधा माधव, आनंद बिहारी और हंस-गोपाल की प्रतिमाएं विराजित हैं।

राधा दामोदर मंदिर- यह श्री कृष्ण भक्ति का एक प्रमुख मंदिर है। इस मंदिर मूल प्रतिमा को रुपा गोस्वामी द्वारा अपने हाथों से पाषाण पर नक्काशी कर अपने प्रिय शिष्य जीवा गोस्वामी को भेंट किया गया था। बाद में जीवा गोस्वामी द्वारा इस मंदिर की स्थापना की गई। पहले यह स्थान सेवाकुंज के मध्य स्थित था, जहां बैठकर रुपा गोस्वामी भजन किया करते थे।

केसी घाट - इस स्थान पर भगवान श्री कृष्ण ने विशाल घोड़े का रुप बनाकर आए केसी दैत्य का वध कर स्नान किया था। वृंदावन का यह स्थान स्नान घाट के रुप में भी जाना जाता है। यहां रोज शाम को यमुना नदी की आरती की जाती है।

रंगजी मंदिर - यह वृंदावन में स्थित सबसे बड़े मंदिरों में से एक है। यह दक्षिण भारतीय शैली में बना मंदिर है। यह मथुरा के एक धनी परिवार द्वारा सन् १८५१ में बनाया गया था। यह मंदिर भगवान रंगनाथ या रंगजी को समर्पित है। मूर्ति का स्वरुप शेषनाग पर विश्राम कर रहे भगवान विष्णु का है। चैत्र माह में यहां पर रथ यात्रा निकाली जाती है, जिसे ब्रह्मोत्सव के नाम से जाना जाता है।

जुगल किशोर मंदिर - यह वृंदावन के सबसे प्राचीनतम मंदिरों में से एक है। यह सन् १६२७ में बनकर तैयार हुआ। ऐसा माना जाता है कि सन् १५७० में मुगल शासन अकबर ने जब वृंदावन आए तो उन्होंने गोदिया वैष्णव को चार मंदिर निर्माण की अनुमति दी। यह चार मंदिर थे - मदन मोहन मंदिर, गोविंदजी, गोपीनाथ और जुगल किशोर मंदिर। यह मंदिर केसी घाट के समीप स्थित होने से इन मंदिरों को केसी घाट मंदिर के नाम से भी जाना जाता है। राधा रमन मंदिर - इस मंदिर की स्थापना गोपाल भट्ट गोस्वामी द्वारा की गई। राधारमन भगवान श्री कृष्ण का ही एक नाम है और इसका शाब्दिक अर्थ होता है कि राधा का सौभाग्य देेने वाले। इस मंदिर में बैठने के लिए एक लकड़ी की चौकी और एक शाल रखी गई है। जिनके पीछे मान्यता है कि यह दोनों चैतन्त महाप्रभु द्वारा गोपाल भट्ट गोस्वामी को भेंट की गई थी।

शाह मंदिर - यह मंदिर भी श्री कृष्ण भक्ति को समर्पित एक लोकप्रिय देवस्थान है। इसका निर्माण लखनऊ के स्वर्ण व्यापारी कुंदनलाल शाह द्वारा सन १८७६ का माना जाता है। मंदिर के प्रमुख देवता छोटे राधारमन के नाम से प्रसिद्ध है। यह मंदिर शानदार वास्तुकला, संगमरमर की गई सुंदर नक्काशी, कॉंच का कार्य आदि के लिए प्रसिद्ध है।

कैसे पहुंचे वृंदावन -

वृंदावन पहुंचने के लिए वायुमार्ग, रेलमार्ग और सड़क मार्ग से परिवहन उपलब्ध है।

वायुमार्ग - आगरा हवाई अड्डा सबसे निकटतम है। जिसकी वृंदावन से दूरी ६६ किलोमीटर है। यह दिल्ली, खजुराहो और वाराणसी हवाई अड्डों से भी सरकारी और निजी हवाई सेवाओं से जुड़ा है।

रेलमार्ग - मथुरा जंक्शन वृंदावन पहुंचने के लिए प्रमुख रेल्वे स्टेशन है। यहाँ दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, लखनऊ-आगरा से अनेक रेलगाडिय़ाँ का आवागमन होता है। जिनमें प्रमुख है - पंजाब मेल, तेज एक्सप्रेस, अगस्त क्रांति एक्सप्रेस, राजधानी और तूफान एक्सप्रेस आदि।

सड़क मार्ग - वृंदावन और मथुरा आगरा, दिल्ली, भरतपुर, अलवर और लखनऊ से सड़क मार्ग से जुड़ा है।

गोवर्धन धाम


गिरिराज मंदिर / गोवर्धन धाम 

मथुरा और वृ्न्दावन में भगवान श्री कृ्ष्ण से जुडे अनेक धार्मिक स्थल है. किसी एक का स्मरण करों तो दूसरे का ध्यान स्वत: ही आ जाता है. मथुरा के इन्हीं मुख्य धार्मिक स्थलों में गिरिराज धाम का नाम आता है सभी प्राचीन शास्त्रों में गोवर्धन पर्वत की वर्णन किया गया है.

     गोवर्धन का मह्त्व

गोवर्धन के मह्त्व का वर्णन करते हुए कहा गया है. कि गोवर्धन पर्वत  गोकुल पर मुकुट में जडी मणि के समान चमकता रहता है.


गिरिराज जी के अंगों की विभिन्न स्थितियां बताई गई है.जहाँ गोवर्धन पर रास में श्री राधा ने श्रृंगार धारण किया था, वह स्थान "श्रंगारमंडल" के नाम से प्रसिद्ध है. श्रंगारमंडल के अधोभाग में श्री गोवर्धन का 'मुख' है, जहाँ पर भगवान ने व्रज वासियों के साथ अन्नकूट का उत्सव किया था |

'मानसीगंगा' गोवर्धन के दोनों 'नेत्र'  है, 'चन्द्रसरोवर' 'नासिका', 'गोविंदकुण्ड' 'अधर' , और 'श्रीकृष्ण कुण्ड' 'चिबुक' है,'राधाकुंड' गोवर्धन की 'जिहा' , और ललिता सरोवर 'कपोल' है. गोपाल कुण्ड 'कान' और कुसुम सरोवर 'कर्णान्तभाग' है. जिस शिला पर मुकुट का चिन्ह है उसे गिरिराज का 'ललाट' कहते है. चित्रशिला उनका 'मस्तक' और वादिनी-शिला उनकी 'ग्रीवा' है. कंदुक तीर्थ उनका 'पार्श्व भाग' है. और उष्णीष-तीर्थ को उनका 'कटि प्रदेश' बतलाया जाता है |

द्रोंण-तीर्थ 'पृष्ठ देश' में और लौकिक-तीर्थ 'पेट' में है. कदम्ब-खंड 'हदय-स्थल' में है. श्रृंगारमंडल तीर्थ उनकी 'जीवात्मा' है श्री कृष्ण चरण-चिन्ह महात्मा गोवर्धन का 'मन' है. हस्तचिन्ह तीर्थ 'बुद्धि' और ऐरावत चरण-चिन्ह उनका 'चरण' है. सुरभि के चरण चिन्हों में महात्मा गोवर्धन के 'पंख' है. पुच्छ-कुण्ड में 'पूंछ' की भावना की जाति है. वत्स-कुण्ड में उनका 'बल', रूद्र कुण्ड में 'क्रोध' और इंद्र सरोवर में 'काम' की स्थिति है. इस प्रकार गिरिराज जी के ये विभिन्न अंग है |

जो समस्त पापों को हर लेने वाले है. जो नर श्रेष्ठ गिरिराज जी की इन विभूति को सुनता है वह योगी दुर्लभ 'गोलोक' नामक परम धाम में जाता है |

     गिरिराज मंदिर कथा 

गिरिराज मंदिर के विषय में पौराणिक मान्यता है, कि श्री गिरिराज को हनुमान जी उतराखंड से ला रहे थे उसी समय एक आकाशवाणी सुनकर वे पर्वत को ब्रज में स्थापित कर दक्षिण की और भगवान श्री राम के पास लौट गये थे.  इन्हीं मान्यताओं के अनुसार भगवान श्री  कृ्ष्ण के समय में यह स्थान प्राकृ्तिक सौन्दर्य से भरा रहता था. यहां अनेक गुफाएं होने का उल्लेख किया गया है. 

     गोवर्धन धाम कथा 

गोवर्धन धाम से जुडी एक अन्य कथा के अनुसार गोकुल में इन्द्र देव की पूजा के स्थान पर गौ और प्रकृ्ति की पूजा का संदेश देने के लिये इस पर्वत को अंगूली पर उठा लिया था. कथा में उल्लेख है, कि भगवान श्री कृष्ण ने इन्द्र की परम्परागत पूजा बन्द कर गोवर्धन की पूजा ब्रज में की थी

ब्रज में प्रत्येक वर्ष इन्द्र देव की पूजा का प्रचलन था इस पूजा पर ब्रज के लोग अत्यधिक व्यय करते थें. जो वहां के निवासियों के सामर्थ्य से कहीं अधिक होता था. यह देख कर भगनान श्रीकृ्ष्ण ने सभी गांव वालों से कहा कि इन्द्र पूजा के स्थान पर जो वस्तुएं हमें जीवन देती है. भोजन देती है. उन वस्तुओं की पूजा करनी चाहिए. 

भगवान श्रीकृ्ष्ण की बात मानकर ब्रज के लोगों ने उस वर्ष देव इन्द्र की पूजा करने के स्थान पर पालतु पशुओ, सुर्य, वायु, जल और खेती के साधनों की पूजा की. इस बात से इन्द्र देव नाराज हो गएं. और नाराज होकर उन्होनें ब्रज में भयंकर वर्षा की. इससे सारा ब्रज जल से मग्न हो गया. 

सभी दौडते हुए भगवान श्रीकृ्ष्ण के पास आयें और इस प्रकोप से बचने की प्रार्थना की. भगवान श्री कृ्ष्ण ने उस समय गोवर्धन पर्वत अपनी अंगूली पर उठाकर ब्रजवासियों की रक्षा की थी. उसी दिन से गिरिराज धाम की पूजा और परिक्रमा करने से विशेष पुन्य की प्राप्ति होती है.  

गिरिराज महाराज के दर्शन कलयुग में सतयुग के दर्शन करने के समान सुख देते है.  यहां अनेक शिलाएं है. उन शिलाओं का प्रत्येक खास अवसर पर श्रंगार किया जाता है. करोडों श्रद्वालु यहां इस श्रंगार और गोवर्धन के दर्शनों के लिये आते है. गोवर्धन पर्वत की परिक्रमा कर पूजा करने से मांगी हुई मन्नतें पूरी होती है. जो व्यक्ति 11 एकादशियों को नियमित रुप से गोवर्धन पर्वत की परिक्रमा करता है. उसे मनोवांछित वस्तु की प्राप्ति होती है.    

यहां के मंदिरों में न कोई पुजारी है, तथा न ही कोई प्रबन्धक है. फिर भी सभी कार्य बिना किसी बाधाएं के पूरे होते है.  यहां के एक चबूतरे पर विराजमान गिरिराज महाराज की शिला बेहद दर्शनीय है. इसके दर्शनों के लिये भारी संख्या में श्रद्वालु जुटते है. महाराज गिरिराज की शिला को अधिक से अधिक सजाने की यहां श्रद्वालुओं में होड रहती है. श्रंगार पर हजारों-या लाखों नहीं बल्कि करोडों रुपये लगाये जाते है. यहां की वार्षिक सजावट का व्यय किसी बडे मंदिर में चढावे की धनराशि से अधिक होता है. यहां साल में चार बार विशेष श्रंगार ओर छप्पन भोग लगाया जाता है.     

     ५६  भोग नैवेद्ध 

श्रीकृ्ष्ण की उपासना अन्य देवों की तुलना में सबसे अधिक की जाती है. श्रीकृष्ण के विषय में यह मान्यता है, कि ईश्वर के सभी तत्व एक ही अवतार अर्थात भगवान श्री कृष्ण में समाहित है. गिरिराज को भगवान श्रीकृ्ष्ण के जन्म उत्सव के अलावा अन्य मुख्य अवसरों पर 56 भोग का नैवेद्ध अर्पित किया जाता है जिसमें पूरी, परांठा, रोटी,चपाती,,मक्की की रोटी,साग, अन्य प्रकार की तरकारी, साग,अंकुरित,अन्न,उबाला हुआ भुट्टा या भूना हुआ,सभी प्रकार की दालें,कढी,चावल, मिली-जुली सब्जी, सभी पकवान, मिठाई,पेढा, खीर,हलवा, गुलाबजामुन, जलेबी, इमरती, रबड़ी, मीठा दूध, मक्खन, मलाई, मालपुआ, पेठा, मीठी पूरी, कचोरी, समोसा, चावल,बाजरे की खिचड़ी, दलिया,ढोकला, नमकीन,मुरमुरा,भेलपुरी, चीले,( मीठे , नमकीन दोनों), अचार विशेषकर टींट का, चाट, टिक्की, चटनी,आलू ,पालक आदि के पकोड़े, बेसन की पकोड़ी, मठ्ठा, छाछ,लस्सी, रायता,दही, मेवा, मुरब्बा, सलाद, नीम्बू में घिसी हुयी मूली ,फल, पापड़,पापडी,पान, इलायची,सौंफ,लौंग,शुद्ध बिस्कुट, गोली,टॉफी,चाकलेट, गोल-गप्पा, उसके खट्टे मीठे जल,मठरी- शक्कर पारा,खील,बताशा, आमपापड़,शहद,सभी प्रकार की गज्जक, मूंगफली,पट्टी, रेवड़ी, गुड,शरबत, जूस, खजूर,कच्चा नारियल का भोग लगाया जाता है.  

कार्तिक  मास में ही दिवाली के ठीक 8 दिन पश्चात आती है, गोपाष्टमी. गोपाष्टमी  पर गो-चारण पर जाने से  पूर्व  भगवान श्री कृष्ण-बलरामजी ने सभी गौओं का पूजन किया ( दशम स्कंध , श्रीमद भागवत) . अतः  इसदिन गौ-माता  को तिलक करने व् रोटी खिलने की परंपरा है.  

ऐसे भी मान्यता है की धरती-माता आज के दिन ही प्रकट हुई थीं . प्रति दिन पृथ्वी-माँ को प्रणाम करने की परंपरा है ही और अक्षय-नवमी को तो विशेष ही. देव-उठनी  एकादशी के दिन श्री धाम वृन्दावन, गोवर्धन परिक्रमा मार्ग का दर्शन देखते ही बनता है. लाखों भक्त जो वर्ष-भर किसी कारण वश परिक्रमा नहीं कर पाते आज के दिन निकल पड़ते हैं, परिक्रमा के लिए विशेषकर श्री राधा-दामोदर मंदिर की. 

     गोवर्धन परिक्रमा

गोवर्धन के महत्व की सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटना यह है कि यह भगवान कृष्ण के काल का एक मात्र स्थिर रहने वाला चिन्ह है. उस काल का दूसरा चिन्ह यमुना नदी भी है, किन्तु उसका प्रवाह लगातार परिवर्तित होने से उसे स्थाई चिन्ह नहीं कहा जा सकता है.

इस पर्वत की परिक्रमा के लिए समूचे विश्व से कृष्णभक्त, वैष्णव और वल्लभ संप्रदाय के लोग आते हैं. यह पूरी परिक्रमा 7 कोस अर्थात लगभग 21 किलोमीटर है. यहाँ लोग दण्डौती परिक्रमा करते हैं. दण्डौती परिक्रमा इस प्रकार की जाती है कि आगे हाथ फैलाकर ज़मीन पर लेट जाते हैं और जहाँ तक हाथ फैलते हैं, वहाँ तक लकीर खींचकर फिर उसके आगे लेटते हैं.