बोध गया


गया जी 

गया बिहार के महत्त्वपूर्ण तीर्थस्थानों में से एक है। यह शहर ख़ासकर हिन्दू तीर्थयात्रियों के लिए काफ़ी मशहूर है। यहाँ का 'विष्णुपद मंदिर' पर्यटकों के बीच लोकप्रिय है। दंतकथाओं के अनुसार भगवान विष्णु के पांव के निशान पर इस मंदिर का निर्माण कराया गया है। हिन्दू धर्म में इस मंदिर को अहम स्थान प्राप्त है। गया पितृदान के लिए भी प्रसिद्ध है। कहा जाता है कि यहाँ फल्गु नदी के तट पर पिंडदान करने से मृत व्यक्ति को बैकुंठ की प्राप्ति होती है। आधुनिक काल में भी सभी धार्मिक हिन्दुओं की दृष्टि में गया का विलक्षण महत्त्व है। इसके इतिहास प्राचीनता, पुरातत्त्व-सम्बन्धी अवशेषों, इसके चतुर्दिक पवित्र स्थलों, इसमें किये जाने वाले श्राद्ध-कर्मों तथा गया वालों के विषय में बहुत-से मतों का उद्घोष किया गया है। गया के विषय में सबसे महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है 'गयामाहात्मय'। विद्वानों ने गयामाहात्मय के अध्यायों की प्राचीनता पर सन्देह प्रकट किया है। विष्णुधर्मसूत्र[ ने श्राद्ध योग्य जिन 55 तीर्थों के नाम दिये हैं, उनमें गया-सम्बन्धी तीर्थ हैं- गयाशीर्ष, अक्षयवट, फल्गु, उत्तर मानस, मतंग-वापी, विष्णुपद। गया में व्यक्ति जो कुछ दान करता है उससे अक्षय फल मिलता है। अत्रि-स्मृति (55-58) में पितरों के लिए गया जाना, फल्गु-स्नान करना पितृतर्पण करना, गया में गदाधर (विष्णु) एवं गयाशीर्ष का दर्शन करना वर्णित है। शंख ने भी गयातीर्थ में किये गये श्राद्ध से उत्पन्न अक्षय फल का उल्लेख किया है।


अष्ट विनायक - श्री सिद्धविनायक गणेश


अष्ट विनायक गणेश या भगवान श्री गणेश के आठ पवित्र मंदिर महाराष्ट्र के पुणे के समीप स्थित है। इसी अष्टविनायक यात्रा का एक पड़ाव श्री सिद्धविनायक गणेश मंदिर है। यह महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले की करजत तहसील के दूरस्थ गांव सिद्धटेक में स्थित है। सिद्धटेक भीमा नदी के किनारे बसा है। नदी का प्रवाह दक्षिणामुखी है। एक रोचक बात यह है कि यह स्थान बहुत शांत क्षेत्र है। इसका प्रमाण इस बात से मिलता है कि यहां भीमा नदी तेज गति से प्रवाहित होती है, परंतु उसका कोई शोर नहीं होता। यहां श्री सिद्धविनायक गणेश सिद्धी देने वाले बलशाली देवता के रुप में प्रसिद्ध है।

पौराणिक महत्व -

ऐसी पौराणिक मान्यता है कि भगवान विष्णु ने यहां पर तप कर सिद्धी प्राप्त की। इस सिद्धी के बल से भगवान विष्णु ने सहस्त्र यानि हजार वर्षों तक मधु और कैटभ नाम के शक्तिशाली दैत्यों से युद्ध कर उनका संहार करने में सफल हुए। कथानुसार भगवान ब्रह्मा ने सृष्टि रचना के विचार से ओम अक्षर का लगातार जप किया। जिससे भगवान श्री गणेश उनकी तपस्या प्रसन्न और ब्रह्मदेव को सृष्टि रचना करने की मनोकामना पूरे होने का वरदान दिया। जब भगवान ब्रह्मदेव सृष्टि की रचना कर रहे थे, तब भगवान विष्णु को नींद आ गई। शयन की स्थिति में भगवान विष्णु के कानों से मधु और कैटभ नाम के दैत्यों बाहर निकले। दोनों दैत्यों बाहर आकर समस्त देवी-देवताओं को पीडि़त करने लगे। तब भगवान ब्रह्मदेव ने देवी-देवताओं से कहा कि भगवान विष्णु ही इन दैत्यों का संहार करने में सक्षम है। भगवान विष्णु भी शयन से जागे और उन्होंने उन दोनों शक्तिशाली दैत्यों को मारने की भरसक कोशिश की, परंतु वह असफल रहे। तब भगवान विष्णु ने युद्ध रोककर गंधर्व का रुप लेकर शिव भक्ति में गाना शुरु किया। तपस्या में लीन भगवान शिव ने जब यह सुनकर तप से जागे। तब भगवान विष्णु ने भगवान शिव से दैत्यों को मारने का उपाय पूछा। तब भगवान शिव ने विष्णु से कहा कि जब तक वह श्री गणेश का आशीर्वाद प्राप्त नहीं करते उन्हें युद्ध में सफलता नहीं मिलेगी। भगवान शिव ने विष्णु को श्रीगणेश का षडाक्षर मंत्र गणेशाय नम: जपने को कहा। जिससे वह जो चाहेंगे प्राप्त कर लेगें।

यहां श्री गणेश ने भगवान विष्णु को दर्शन दिए। इस मंदिर का निर्माण भगवान विष्णु द्वारा किया गया माना जाता है। तब भगवान विष्णु ने भगवान श्री गणेश की कृ पा प्राप्त करने के लिए सिद्धक्षेत्र वर्तमान सिद्धटेक को चुना। यहां घोर तप कर उन्होंने श्री गणेश को प्रसन्न किया। भगवान गणेश ने उनकी मनोकामना पूरी होने का आशीर्वाद दिया। तब भगवान विष्णु सिद्धी प्राप्त कर पर्वत की चोटी पर भगवान गणेश का मंदिर बनाया और गजानन की मूर्ति स्थापित की। इसके बाद भगवान विष्णु ने दैत्यों का संहार किया और श्री गणेश के आशीर्वाद से ही ब्रह्मदेव ने निर्विघ्र सृष्टि रचना की। भगवान ब्रह्मदेव की दोनों पुत्रियों को श्रीगणेश ने अपनी पत्नी के रुप में स्वीकार किया।

ऐसा माना जाता है कि यहां वेद व्यास ने भी पुराणों की रचना से पहले तप किया और भगवान श्री गणेश की प्रसन्नता प्राप्त की। युगान्तर में भगवान विष्णु द्वारा बनाया गया श्री गणेश मंदिर तो नष्ट हो गया। किंतु ऐसा माना जाता है कि एक चरवाहे ने इस स्थान पर भगवान गणेश के दर्शन किए। तब उसने यहां पर भगवान गणेश का पूजन शुरु किया। इसके बाद पेशवा काल में इस नवीन मंदिर का पुननिर्माण हुआ।

मंदिर और प्रतिमा -

अष्टविनायक गणेश में श्री सिद्धी विनायक मंदिर उत्तरामुखी होकर ऊंची पहाड़ी पर स्थित है। मंदिर का मंदिर में श्री सिद्धविनायक गणेश की स्वयंभु प्रतिमा विराजित है। यह स्थान 5 फिट ऊंचा और १० फीट लंबा है। सिद्धीविनायक प्रतिमा के आस-पास जय और विजय की कांसे से बनी मूर्ति भी विराजित है। मंदिर में ही शिव परिवार का छोटा सा मंदिर है। प्रतिमा जाग्रत मानी जाती है। यह तीन फीट ऊंची है और ढाई फीट चौड़ी है। उत्तरामुखी है। श्री सिद्धीविनायक की सूंड दाएं ओर मुड़ी हुई है। दांए सूंड वाली गणेश प्रतिमा और मंदिर को बहुत सिद्धी देने वाला माना जाता है। ऐसे गणेश शीघ्र कृपा करने वाले और प्रसन्न होने वाले माने जाते हैं। प्रतिमा गजमुखी है, फिर भी उनकी सूंड बहुत बड़ी नहीं है। रिद्धी और सिद्धी श्री गणेश की पालथी में विराजित है। मुख मण्डल बहुत सुंदर और आकर्षक है। ऐसा माना जाता है भगवान श्री सिद्धीविनायक की परिक्रमा बहुत सुफल देने वाली है। एक प्रदक्षिणा ५ किलोमीटर की होती है। मुख्य मंदिर के समीप ही अन्य देवी-देवताओ के मंदिर है। जिनमें भगवान विष्णु, भगवान शिव और माता शीतला मंदिर प्रमुख है।

उत्सव -

श्री सिद्धीविनायक मंदिर में भाद्रपद और माघ माह की शुक्लपक्ष की प्रतिपदा से पंचमी के मध्य गणेश उत्सव धूमधाम से मनाए जाते हैं। इस दौरान यहां पर महापूजा और महाभोग का आयोजन होता है। भगवान गणेश की प्रतिमा को पालकी में बैठाकर कर नगर में भ्रमण कराया जाता है। आरती, पूजा आदि की जाती है।

कैसे पहुंचे -

वायु मार्ग - श्री सिद्धीविनायक, सिद्धटेक पहुंचने के लिए सबसे निकटतम हवाई अड्डे पुणे और मुंबई है। रेल मार्ग - सिद्धटेक जाने के लिए नजदीकी रेल्वे स्टेशन हैं - मुंबई, लोकमान्य तिलक, अहमदनगर और पुणे। पुणे-सोलापुर रेल मार्ग पर डांड स्टेशन से सिद्धटेक १८ किलोमीटर दूर स्थित है। सड़क मार्ग - पुणे से सिद्धटेक की दूरी १०० किमी और मुंबई से २७५ किमी है। पुणे से डांड जाने वाली बस शिरापुर नाम ग्राम आती है। जहां से सिद्धटेक मात्र १ किलोमीटर दूर है। यहां आकर बोट के माध्यम से सिद्धटेक पहुंचा जा सकता है।

श्री गणेश के आठ रुप - श्री अष्टविनायक


 श्री गणेश के आठ रुप - श्री अष्टविनायक

भगवान श्री गणेश जल तत्व के देवता माने जाते हैं। जल पंचतत्वों या पंचभूतों में एक है। पूरे जगत की रचना पंचतत्वों से हुई है। इस प्रकार जल के साथ श्री गणेश हर जगह उपस्थित हैं। मानव जीवन जल के बिना संभव नहीं हैं। जल के बिना गति, प्रगति कुछ भी असंभव है। इसलिए श्री गणेश को मंगलमूर्ति के रुप में प्रथम पूजा जाता है। हिन्दू धर्म ग्रंथों में सृष्टि रचने वाले भगवान ब्रह्मदेव ने भविष्यवाणी की थी कि हर युग में भगवान श्री गणेश अलग-अलग रुप में अवतरित होंगे। कृतयुग में विनायक, त्रेतायुग में मयूरेश्वर, द्वापरयुग में गजानन और धूम्रकेतु के नाम से कलयुग में अवतार लेंगे। इसी पौराणिक महत्व से जुड़ी है महाराष्ट्र में अष्टविनायक यात्रा। विनायक भगवान गणेश का ही एक नाम है। महाराष्ट्र में पुणे के समीप अष्टविनायक के ८ पवित्र मंदिर २० से ११० किलोमीटर के क्षेत्र में स्थित है। इन मंदिरों का पौराणिक महत्व और इतिहास है। इनमें विराजित गणेश की प्रतिमाएं स्वयंभू मानी जाती है यानि यह स्वयं प्रगट हुई हैं। यह मानव निर्मित न होकर इनका स्वरुप प्राकृतिक है। हर प्रतिमा का स्वरुप एक-दूसरे से अलग है। इन पवित्र प्रतिमाओं के प्राप्त होने के क्रम अनुसार ही अष्टविनायक की यात्रा भी की जाती है। इस क्रम में सबसे पहले मोरगांव स्थित मोरेश्वर इसके बाद क्रमश: सिद्धटेक में सिद्धिविनायक, पाली स्थित बल्लालेश्वर, महाड स्थित वरदविनायक, थेऊर स्थित चिंतामणी, लेण्याद्री स्थित गिरिजात्मज, ओझर स्थित विघ्रेश्वर, रांजणगांव स्थित महागणपति की यात्रा की जाती है। इनमें ६ गणपति मंदिर पुणे जिले में तथा २ रायगढ़ जिले में स्थित हैं। अष्ट विनायक की यह यात्रा मात्र धर्म लाभ ही नहीं बल्कि आध्यात्मिक सुख, मानसिक शांति और आनंद देती है। 

मयूरेश्वर या मोरेश्वर का मंदिर मोरगांव में करहा नदी के किनारे स्थित है। यह महाराष्ट्र के पुणे में बारामती तालुका में स्थित है। यह क्षेत्र भूस्वानंद के नाम से भी जाना जाता है। जिसका अर्थ होता है सुख समृद्ध भूमि। इस क्षेत्र का मोर के समान आकार लिए हुए है। इसके अलावा यह क्षेत्र में बीते काल में बडी संख्या में मोर पाए जाते थे। इस कारण भी इस क्षेत्र का नाम मोरगांव प्रसिद्ध हुआ। 

सिद्धटेक महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले की करजत तहसील में भीम नदी के किनारे स्थित एक छोटा सा गांव है। सिद्धटेक में अष्टविनायक में से एक सिद्धविनायक को परम शक्तिमान माना जाता है। ऐसी मान्यता है कि यहां सिद्धटेक पर्वत था, जहां पर विष्णु ने तप द्वारा सिद्धि प्राप्त की थी। 

अष्टविनायक गणेश में बल्लालेश्वर गणेश ही एकमात्र ऐसे गणेश माने जाते हैं, जिनका नाम भक्त के नाम पर प्रसिद्ध है। यहां गणेश की प्रतिमा को ब्राह्मण की वेशभूषा पहनाई जाती है। 

वरदविनायक गणेश का मंदिर महाराष्ट्र के रायगढ़ जिले के कोल्हापुर तालुका में एक सुंदर पर्वतीय गांव महाड में है। भक्तों की ऐसी श्रद्धा है की यहां वरदविनायक गणेश अपने नाम के समान ही सारी कामनाओं को पूरा होने का वरदान देते हैं। प्राचीन काल में यह स्थान भद्रक नाम से भी जाना जाता था। इस मंदिर में नंददीप नाम से एक दीपक निरंतर प्रज्जवलित है। इस दीप के बारे में माना जाता है कि यह सन १८९२ से लगातार प्रदीप्त है। 

चिंतामणी गणेश का मंदिर महाराष्ट्र के पुणे जिले के हवेली तालुका में थेऊर नामक गांव में है। यह गांव मुलमुथा नदी के किनारे स्थित है। यहां गणेश चिंतामणी के नाम से प्रसिद्ध है। जिसका अर्थ है कि यह गणेश सारी चिंताओं को हर लेते हैं और मन को शांति प्रदान करते हैं। 

गिरिजात्मज अष्टविनायक मंदिर उत्तरी पुणे के लेण्याद्री गांव में स्थित है। यह कुकदी नदी के किनारे बसा है। गणेश पुराण अनुसार इस स्थान का जीरनापुर या लेखन पर्वत था। गिरिजात्मज का अर्थ बताया गया है माता पार्वती के पुत्र। गिरिजा माता पार्वती का ही एक नाम है और आत्मज का अर्थ होता है पुत्र। अष्टविनायक में यह एकमात्र मंदिर है। जो ऊंची पहाड़ी पर बुद्ध गुफा मंदिर में स्थित है। 

विघ्रेश्वर अष्टविनायक का मंदिर कुकदेश्वर नदी के किनारे ओझर नामक स्थान पर स्थित है। विघ्रेश्वर दैत्य को मारने के कारण ही इनका नाम विघ्रेश्वर विनायक हुआ। ऐसा माना जाता है कि तब से यहां भगवान श्री गणेश सभी विघ्रों को नष्ट करने वाले माने जाते हैं।

महागणपति को अष्टविनायक में सबसे दिव्य और शक्तिशाली स्वरुप माना जाता है। यह अष्टभुजा, दशभुजा या द्वादशभुजा वाले माने जाते हैं। त्रिपुरासुर दैत्य को मारने के लिए गणपति ने यह रुप धारण किया। इसलिए इनका नाम त्रिपुरवेद महागणपति नाम से प्रसिद्ध हुआ।

बुध मंदिर - थिरुवेनकाडु


बुध मंदिर - थिरुवेनकाडु 

सनातन धर्म और वैदिक परंपरा की मुख्य विशेषता है कि वह मानव का धर्म के माध्यम से प्रकृति और ब्रह्मांड के साथ अटूट संबंध स्थापित करती है। इसी परंपरा के अंतर्गत ब्रह्मांड में स्थित सारे ग्रह, नक्षत्र आदि को ईश्वर मानकर उसकी पूजा और उपासना के विधान बनाए। इससे मानव स्वयं और प्रकृति की रक्षा करने में सक्षम हुआ। मानव को पीड़ाओं और कष्टों से मुक्ति का मार्ग भी मिला। सौर मंडल में पाए जाने वाले अलग-अलग ग्रहों के देव मंदिर भारत के विभिन्न भागों में स्थित है। जैसे- शनि ग्रह का देव मंदिर शिंगणापुर में, मंगल ग्रह का देव मंदिर उज्जैन में। इसी क्रम में तमिलनाडु राज्य के कुंभकोनम जिले के माईलादुथुराई से २० किलोमीटर दूर थिरुवेनकाडु स्थान पर बुध देव का प्राचीन और पवित्र मंदिर स्थित है। बुध देव का प्राचीन मंदिर कावेरी और मणिकर्णिका नदी के समीप स्थित है। यह स्थान आदि चिदम्बरम के नाम से भी प्रसिद्ध है। यहां पर नवग्रह भी प्रतिष्ठित है, किंतु इस स्थान पर मुख्य रुप से मुख्य देवता के रुप में चार भुजाधारी बुध देव की पूजा का ही महत्व है। इस स्थान पर भगवान शिव का श्वेत रानेश्वर मंदिर भी स्थित है। थिरुवेनकादु को श्वेतअरण्य नाम से भी जाना जाता है। जिसका अर्थ होता है सफेद जंगल। इसी प्रकार बुद्धि के देवता बुध का स्थान होने से यह ज्ञान अरण्य क्षेत्र के नाम से भी प्रसिद्ध है। इसके पीछे मान्यता है कि देवराज इन्द्र के वाहन ऐरावत हाथी ने यहां पर तप किया था। यह उत्तर के बनारस के समान ही पवित्र स्थान माना जाता है। 

प्राचीन काल से ही यह बहुत पवित्र स्थान माना जाता है। यह मंदिर पूर्वाभिमुख है। वर्तमान मंदिर का निर्माण चोलकालीन माना जाता है। मंदिर की संरचना में दो विशाल इमारत पूर्व और पश्चिम में निर्मित है। जिस पर आकर्षक नक्काशी है। ऐसा माना जाता है यहां भगवान शिव ने चिदम्बरम में ताण्डव नृत्य करने से पूर्व उसका अभ्यास इस स्थान पर किया था। यहां मुख्य मंदिर में बुध देव और श्वेत रानेश्वर के अलावा ब्रह्म-विद्यादेवी, दुर्गा, काली, अघोर मूर्ति और नटराज आदि देवताओं की भी पूजा की जाती है। यहां पर प्राचीन परंपराओं के अनुसार श्रद्धालु बुध मंदिर की १७ बार परिक्रमा करते है। हर परिक्रमा में एक दीप प्रज्जवलित किया जाता है। ऐसा माना जाता है कि ऐसा करने से बुध ग्रह के सभी अशुभ प्रभाव नष्ट हो जाते हैं और बुध देव भक्त को बुद्धि और समृद्धि प्रदान करते हैँ। साथ ही वह व्यवसाथ में सफलता, तनावों से राहत देने वाले, एकाग्रता, विद्या और अच्छी स्मरण शक्ति देने वाले भी माने जाते हैं। 

पौराणिक मान्यता के अनुसार बुध ग्रह, चंद्र देव और तारा की संतान है। बुध का विवाह मनु की पुत्री ईदा के साथ हुआ। पुरुरवा को इनकी संतान माना जाता है। लिंग पुराण के अनुसार बुध चंद्रमा और रोहिणी की संतान माने जाते हैं। जबकि विष्णु पुराण, ब्रह्म पुराण और पद्मपुराण अनुसार बुध चंद्रमा और बृहस्पति की पत्नी तारा की संतान है। बुध देव चार भुजाओं वाले हैं और उनका वाहन सिंह है। 

ज्योतिष विज्ञान में बुध ग्रह - 

ज्योतिष विज्ञान के अनुसार बुध ग्रह ईश्वर का दूत माना जाता है। यह बुद्धिमत्ता और वाकपटुता का निर्धारक है। इसलिए यह किसी भी व्यक्ति को विद्वान, शिक्षक, कलाका और सफल व्यवसायी बना सकता है। बुध ग्रह के प्रभाव से किसी भी व्यक्ति में दोहरा चरित्र देखा जाता है। बुध ग्रह को वात, पित्त और कफ का कारक या त्रिदोषात्मक माना जाता है। यह उत्तर दिशा का स्वामी माना जाता है। बुधदेव जल तत्व के स्वामी है। इसका रंग हरा है। इसी प्रकार बुधदेव मिथुन और कन्या राशि के स्वामी है। सूर्य और शुक्र के साथ इनकी मित्रता है। चंद्र के साथ इनकी शत्रुता है। बुध का अच्छा या बुरा प्रभाव अन्य ग्रहों के साथ युति पर निर्भर करता है। बुध अश्लेषा, ज्येष्ठा और रेवती नक्षत्र के स्वामी माने जाते हैं। बुध की धातु कांसा, रत्न पन्ना और अंक ५ होता है।

पौराणिक महत्व - 

इस के संबंध में अनेक पौराणिक मान्यता है । मान्यता है कि जब शिव के वाहन नंदी पर एक दैत्य ने आक्रमण कर घायल कर दिया। तब शिव अपने उग्र अघोर मूर्ति रुप में प्रगट हुए और उस दैत्य का संहार किया। ऐसी ही एक मान्यता के अनुसार जब बुध देव को नपुसंक होने का श्राप मिला, तब उन्होनें इस स्थान पर आकर भगवान शिव की प्रसन्नता के लिए तप और उपासना की। शिव ने बुध के तप से प्रसन्न होकर न सिर्फ बुध को शापमुक्त किया बल्कि उन्हें बुध लोक का स्वामी भी बना दिया। दूसरी मान्यता के अनुसार इस पवित्र स्थान पर उपनिषद काल के संत श्वेतकेतु और देवराज इंद्र के वाहन ऐरावत ने भी भगवान शिव की प्रसन्नता हेतु तप किया। इस स्थान के महत्व का वर्णन संगमकालीन कविताओं, जो शिलाप्पदीकरण नाम से प्रसिद्ध है, में मिलता है। इसके अलावा वाल्मीकी रामायण में भी इस स्थान का उल्लेख है। नयनार भक्तों द्वारा गाए जाने वाले भजनों में भी इस स्थान की महिमा मिलती है। 


पहुंच के संसाधन -

वायु मार्ग - थिरुवेनकाडु पहुंचने के लिए सबसे निकटतम हवाई अड्डे चेन्नई, तिरुचिरापल्ली और पोंडीचेरी है। 

रेलमार्ग - कांचीपुरम, थंजावुर, श्रीरंगम और कुंभकोनम मुख्य रेल्वे स्टेशन है, जहां से थिरुवेनकाडु पहुंचा जा सकता है। यह शियाजी रेल्वे स्टेशन से ९ किलोमीटर दूर स्थित है। 

सड़क मार्ग - चेन्नई और तिरुचिरापल्ली इन दो स्टेशनों से सड़क मार्ग द्वारा थिरुवेनकाडु पहुंचा जा सकता है। वैथीस्वरण कोयल और सेम्पोन्नर कोयल स्थानों से भी सड़क मार्ग द्वारा यहां पहुंचा जा सकता है।

अष्टविनायक - मोरेश्वर

अष्टविनायक में आस्था रखने वाले भक्त मोरेश्वर गणेश तीर्थ क्षेत्र को भगवान श्री गणेश का लोक यानि रहने का स्थान मानते हैं। जिसे वह स्वानंदलोक कहते हैं। यह क्षेत्र भुस्वानंद भुवन के नाम से भी जाना जाता है। जिसका अर्थ होता है परम आनंद और सुख से भरा स्थान। इसे विष्णु के वास वैकुंठ और भगवान शिव के स्थान कैलाश के समान माना जाता है। शास्त्रों के अनुसार मोरेश्वर श्री गणेश त्रिगुणातीत यानि सत, रज, तम से दूर, निराकार, ओंकार स्वरुप और स्वयंभु हैं। वह हमेशा योग की चौथी अवस्था जिसे तुरीय कहते हैं, में होते हैं।

मंदिर की सरंचना -

भगवान श्री मोरेश्वर अष्टविनायक का मंदिर महाराष्ट्र के पुणे जिले में बारामती तालुका में करहा नदी के किनारे स्थित है। यहां से अष्टविनायक गणेश की यात्रा शुरु होती है। यह पुणे से लगभग ६४ किलोमीटर दूर स्थित है। इस मंदिर का निर्माण १४वीं सदी में किया गया। मुख्य मंदिर उत्तरामुखी होकर गांव के मध्य स्थित है। इसकी संरचना एक छोटे किले के समान दिखाई देती है। मंदिर का परिसर ५० फीट ऊंची दीवारों से घिरा है। चारों कोनों पर चार मिनारों की सरंचना बनी है। मंदिर में चार द्वार हैं। पूर्वी द्वार लक्ष्मीनारायण द्वार, दक्षिणी द्वार शंकर-पार्वती द्वार, पश्चिमी द्वार रती-काम द्वार और उत्तरी द्वार महिवराह द्वार कहलाता है। जो क्रमश: धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के प्रतीक हैं। मंदिर के मुख्य द्वार पर कछुआ की एक बड़ी प्रतिमा और शिला से बनी नंदी की प्रतिमा स्थापित है।

मंदिर में देवताओं और ऋषि मुनियों की प्रतिमाएं भी स्थापित है। यहां गणेश जी की आठ प्रतिमाएं मंदिर के आठ कोनों में विराजित है। जिनके नाम हैं एकदंत, महोदरा, गजानन, लंबोदर, विकट, विघ्रराज, धूम्रवर्ण और वक्रतुंड है। मंदिर परिसर में शमी, मंदार और तराती के वृक्ष हैं। तराती का वृक्ष को कल्पवृक्ष क े नाम से पुकारा जाता है। मनोकामनाओं की पूर्ति के लिये भक्त इस वृक्ष के नीचे बैठकर ध्यान करते हैं।

मूर्ति का स्वरुप -

मंदिर के केन्द्रस्थान में दिव्य और आकर्षक भगवान श्री मयूरेश्वर गणेश की बैठी हुई अवस्था में प्रतिमा हैं। प्रतिमा पूर्वाभिमुख है, उनका उदर बांई ओर मुड़ा होकर प्रतिमा पर सिंदूर और तेल से लेपित है। भगवान के तीन नेत्र हैं। नेत्र और नाभि में हीरे जड़े हैं। मस्तक के ऊपर पीछे की ओर शेषनाग का फन है और दोनों ओर रिद्धी, सिद्धी की प्रतिमा है। श्री गणेश के वाहन मूषक या चूहा और मयूर प्रतिमा के सामने की ओर दिखाई देते हैं।

कथा - पुरातन काल में मिथिला राज्य की गंडकी नगरी में राजा चक्रपाणी हुआ। वह और उनकी पत्नी उग्रा की कोई संतान न होने से दु:खी रहते थे। संतान प्राप्ति के उन्होंने सूर्यदेव की पूजा और तप किया। सूर्यदेव की कृपा से उग्रा गर्भवती हो गई। किंतु गर्भ में पल रहे भू्रण का ताप और तेज वह सहन न कर सकी और उसने उस भ्रूण को सागर में बहा दिया। उस भ्रूण से एक तेजस्वी शिशु का जन्म हुआ। सागर से प्राप्त उस शिशु को एक ब्राह्मण ने राजा चक्रपाणी को सौंप दिया। समुद्र से प्राप्त होने के कारण राजा ने उसका नाम सिंधु रखा। सिंधु बड़ा होकर शक्तिशाली हुआ। उसने गुरु शुक्राचार्य के कहने पर सूर्यदेव क ी तपस्या कर वर प्राप्त किया। सूर्यदेव ने वर में सिंधु को अमृत देकर कहा कि जब तक यह नाभि में रहेगा है, तब तक तुम्हारी मृत्यु नहीं होगी। अमरत्व प्राप्त करने के बाद सिंधु ने देवताओं के राजा इंद्र, विष्णु आदि पर आक्रमण किया और उन्हें बंदी बना लिया। तब बाकी देवताओं ने भगवान श्री गणेश से प्रार्थना कर दैत्यराज सिंधु से देवताओं रक्षा करने को कहा। श्री गणेश देवों की प्रार्थना से प्रसन्न हुए और देवी पार्वती के पुत्र के रुप में जन्म लेकर दैत्यराज सिंधु का अंत कर दिया।

भगवान गणेश जन्म और सिंधु दैत्य का अंत - एक बार माता पार्वती ने भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को मिट्टी की मूर्ति बनाई और ओंमकार मंत्र के जाप करने से वह मिट्टी की मूर्ति शिशु के रुप में बदल गई। यही शिशु श्री गणेश हुए। एक बार शिव और पार्वती ने यह मेरु पर्वत को छोडऩे का निश्चय किया। अत: कैलाश पर्वत की ओर जाते समय राह में श्री गणेश ने सिद्धि और बुद्धि की सहायता से दैत्य कमलासुर का वध कर दिया। इसके बाद उन्होंने देवताओं की प्रार्थना पर गंडकी नगरी के दैत्यराज सिंधु पर पूरी शिव की सेना सहित आक्रमण किया। पहले श्रीगणेश ने सिंधु दैत्य के दो पुत्रों का अंत किया। उन्होंने दैत्यराज को सभी देवी-देवताओं को छोडऩे और युद्ध समाप्त करने को कहा। किंतु दैत्य के नहीं मानने पर भगवान गणेश ने परसु से वार कर उसकी नाभि का अमृत सुखाकर सिंधु दैत्य का अंत कर दिया। इस युद्ध के बाद श्री गणेश मयुर पर विराजित हुए और मयूरेश्वर यानि मयूर पर बैठने वाले कहलाए। साथ ही श्री गणेश अपने भक्तों के इच्छा से मोरगांव में रहने का निश्चय किया।

अन्य दर्शनीय स्थल - 

करहा नदी - ऐसा माना जाता है कि भगवान ब्रह्मदेव द्वारा सात तीर्थों के जल से इस पवित्र नदी प्रगट हुई। इसमें ७ स्नान तीर्थ है, जो पापों का नाश करने वाले माने जाते हैं।

जदभरत - यह करहा नदी के उत्तर में स्थित है। यहां पर शिला पर पांच शिवलिंग हैं।

नग्रभैरव - यह मोरगांव के क्षेत्रपाल माने जाते हैं। यह मोरगांव से पूर्व की ओर डेढ़ किलोमीटर दूर स्थित है। मयूरेश्वर गणेश के दर्शन के पूर्व श्रद्धालु नग्रभैरव के दर्शन करते हैं और गुड़ और नारियल का प्रसाद चढ़ाते हैं।

कैसे पहुंचे -

बस मार्ग - मोरेश्वर गणेश पहुंचने के लिए सबसे सुविधाजनक रास्ता पुणे से जाता है। पुणे से मोरगांव जाने के लिए बस, रेल तथा स्थानीय बसों की सुविधा उपलब्ध है। पुणे-शोलापुर राजमार्ग से मोरगांव की पुणे से दूरी लगभग ७९ किलोमीटर है। इसके अलावा अन्य मार्ग पूणे से जेजूरी और जेजूरी से मोरगांव का है। इस मार्ग से पुणे और मोरगांव की दूरी लगभग ६४ किलोमीटर होती है।

रेलमार्ग -
पुणे-डौंड रेलमार्ग केडगांव होकर बस द्वारा मोरगांव पहुंचा जा सकता है। इसी प्रकार दक्षिण रेलवे के नीरा रेल्व स्टेशन पहुंचकर बस द्वारा मोरगांव पहुंचा जा सकता है।

कब जाएं -अष्टविनायक मोरेश्वर की यात्रा का उचित समय अक्टूबर से मार्च के मध्य माना जाता है। अनेक श्रद्धालु और पर्यटक नवम्बर माह में हल्की ठंडे मौसम में भी यहां की यात्रा करना पसंद करते हैं।

श्री महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंङ्ग

 श्री महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंङ्ग

भगवान शिव का यह तीसरा ज्योतिर्लिंङ्ग मध्यप्रदेश के उज्जैन नगर में है। यह भूमि की सतह से नीचे और दक्षिणमुखी है। मंदिर के गर्भगृह में ज्योतिर्लिंङ्ग है। मध्य में ओंकारेश्वर तथा सबसे ऊपर के भाग में नागचंद्रेश्वर की मूर्ति है।

कथा-महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंङ्ग की उत्पत्ति को लेकर दो कथाएं हैं। एक कथा यह है कि वेदप्रिय ब्राह्मïण व उसके चार पुत्रों को दूषण नामक राक्षस से बचाने के लिए शिव ज्योति के रूप में प्रकट हुए और दूषण व अन्य राक्षसों का संहार किया। मान्यता है तभी से शिव यहां ज्योतिर्लिंङ्ग के रूप में विराजमान हैं। दूसरी कथा यह है कि चंद्रसेन राजा की शिवभक्ति को देख एक विधवा ग्वालन का लड़का बड़ा प्रभावित हुआ। अपने घर के पास एक पत्थर को वह शिव रूप में पूजने लगा। एक दिन ग्वालन ने गुस्से में आकर उस शिवरूपी पत्थर व पूजन सामग्री को फेंक दिया। लड़का रोते-रोते सो गया और जब उठा तो देखा कि उस स्थान पर शिव का भव्य मंदिर बन गया है, तभी से यह ज्योतिर्लिंङ्ग यहां स्थापित है।

महत्व- महाकालेश्वर एकमात्र ऐसा ज्योतिर्लिंङ्ग हैं जहां प्रतिदिन प्रात: चार बजे भस्म से आरती होती है। इसे भस्मार्ती कहते हैं। मान्यता है कभी श्मशान की चिता की भस्म भगवान को चढ़ाई जाती थी। इसके बाद जो आरती होती थी वह भस्मार्ती के रूप में विश्व प्रसिद्ध हुई। आजकल गाय के गोबर से बने कंडे की राख भगवान को भस्म के रूप में आरती के दौरान चढ़ाई जाती है। भस्मार्ती के अलावा मंदिर में प्रात: 10 से 11 बजे तक नैवेद्य आरती, संध्या 5 से 6 बजे तक अभ्यंग शृंगार, संध्या 6 से 7 बजे तक सायं आरती होती है। रात्रि 10.30 बजे से 11 बजे तक शयन आरती होती है। इसके बाद मंदिर के पट बंद हो जाते हैं। भगवान महाकालेश्वर को भक्ति, शक्ति एवं मुक्ति का देव माना जाता है । इसलिए इनके दर्शन मात्र से सभी कामनाओं की पूर्ति एवं मोक्ष प्राप्ति होती है ।

उज्जैन नगर का महत्व :- उज्जैन नगर का पुराणों एवं महाभारत में भी महिमा बताई गई है । यहॉं भगवान श्रीकृष्ण और बलराम ने सांदिपनी आश्रम में शिक्षा ग्रहण की । यहॉं प्रति बारह साल में बृहस्पति के सिंह राशि में आने पर कुम्भ मेला लगता है । जिसे सिंहस्थ मेला नाम से जाना जाता है । यहाँ पुण्य सलिला क्षिप्रा नदी है, जिसका महत्व गंगा के समान बताया गया है ।

पहुंच के संसाधन - महाकालेश्वर के दर्शन हेतु उज्जैन पहुंचने के लिए सभी प्रमुख शहरों से सड़क व रेलवे सुविधाएं उपलब्ध हैं।

सड़क मार्ग- उज्जैन के लिए बस सुविधा उपलब्ध है। बस स्टैंड से मंदिर तक के लिए लोक परिवहन के साधन भी हैं।

रेल मार्ग- उज्जैन देश के सभी प्रमुख शहरों से रेल मार्ग के माध्यम से जुड़ा है। मध्य रेलवे की भोपाल-उज्जैन तथा पश्चिम रेलवे की नागदा-उज्जैन, फतेहाबाद-उज्जैन लाइन है ।

वायु सेवा- सबसे नजदीकी हवाई अडड 55 किमी दूर इंदौर में है। मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में भी हवाई अड्डा है जो यहां से 180 किमी दूरी पर है।

कब जाएं - महाकाल मंदिर वर्ष भर में आप कभी भी जा सकते हैं। लेकिन मार्च से जून का समय सबसे अनुकूल रहता है। श्रावण-भादौ मास में निकलने वाली महाकाल सवारी का विशेष महत्व होता है । अत: इन मास में यात्रा से धार्मिक लाभ प्राप्त होता है ।

सलाह :- उज्जैन एक धार्मिक नगरी है । जहाँ वर्ष भर कई त्यौहार-उत्सव मनाए जाते हैं । ऐसे त्यौहारों पर प्राय: नगर में अपार जन समूह एकत्रित होता है । अत: यात्रा के पूर्व ऐसे बड़े अवसरों की जानकारी प्राप्त करें । ताकि ठहरने या रात्रि विश्राम की स्थिति में असुविधा से बचा जा सके ।

बद्रीनाथ धाम

बद्रीनाथ धाम में भगवान बद्रीनारायण की सेवा पूरी भक्ति और श्रद्धा के साथ संपन्न होती है। भगवान की यह सेवा ब्रह्ममूहुर्त से शुरु होकर रात्रि पर्यन्त तक चलती है। दर्शन तीर्थयात्री और भक्तों के दर्शन के लिए मंदिर प्रात: 2 बजे ही खुल जाता है। इसके बाद मुख्य पुजारी जो श्री रावलजी के नाम से प्रसिद्ध है और नम्बूदर ब्राह्मण हैं, भगवान की प्रात:कालीन पूजा महाभिषेक करते हैं। इसका समय सुबह ७ बजे से ९ बजे तक होता है। भगवान को जल और दूध से स्नान कराया जाता है। स्नान के बाद सुंदर वस्त्र और आभुषण पहनाए जाते हैं। पूरे गर्भगृह में सुगंधित फूलों से सजाया जाता है। भगवान का स्वर्ण जडि़त मुकूट और सोने के छत्र से श्रृंगार किया जाता है। श्रृंगारित मुद्रा में भगवान की पूजा धूप, दीप और वेद मंत्रों के साथ होती है। पूजा के दौरान ऐसा आध्यात्मिक वातावरण निर्मित होता है कि भक्तों में भक्ति और श्रद्धा जागती है। भाव विभोर हुए भक्त स्वयं को धन्य मानते हैं। पूजा अभिषेक के बाद भगवान को बालभोग यानि खीर का भोग अर्पित किया जाता है। दर्शनार्थियों के लिए पूजा-अर्चना के लिए मंडप में अलग स्थान नियत हैं। दर्शन मंडप में बैठकर वेद पाठ चलता रहता है। इसके बाद होने वाले श्रीमद्भागवत पाठ, गीता पाठ के साथ ही यहां भक्ति की गंगा बहती है। भजन-कीर्तन के बाद दोपहर १२ बजे का समय भगवान के महाभोग का होता है। महाभोग अर्पित करने के बाद दर्शनार्थियों के लिए मंदिर बंद कर दिया जाता है। सायंकाल लगभग साढ़े तीन बजे मंदिर भगवान की एकांत सेवा के लिए खुलता है। इसके बाद भक्तों के दर्शनार्थ मंदिर साढ़े चार बजे फिर से खोला जाता है। सांयकाल ६ बजे का समय भगवान की विशेष पूजा-अर्चना का होता है। भगवान की शयन आरती का समय रात्रि आठ बजे से नो के मध्य होता है। शयन आरती के बाद मंदिर के पट दर्शनार्थियों के लिए बंद हो जाते हैं। बद्रीनाथ धाम में बद्रीनारायण मंदिर में प्रवेश करते ही श्रद्धालु का मन भक्ति और आनंद में डूब जाता है। भगवान के दर्शन के क्षण में मन के सारे विकार जैसे मिट जाते हैं। हर भक्त भगवान के दिव्य स्वरुप के दर्शन से अभिभूत हो जाता है। बद्रीनाथ मंदिर में चार भुजाओं की काले पाषाण की अनमोल वस्त्र और आभुषण धारण किए हुए दिव्य मूर्ति है। भगवान पद्मासन की स्थिति में हैं। उनके मस्तक पर हीरा लगा है। मुकुट स्वर्ण मंडित है। इस मूर्ति के आस-पास नर-नारायण, उद्धवजी, कुबेर और नारदजी की मूर्ति है। प्रदक्षिणा में भी श्री हनुमान, लक्ष्मी, श्री गणेश, कर्ण की प्रतिमाएं हैं। गर्भगृह के दायीं ओर माता लक्ष्मी का मंदिर है। जिसके समीप ही भगवान का भोग तैयार करने का स्थान है। यहां माता लक्ष्मी की प्रतिमा भगवान के दांई ओर विराजित है। यानि माता वामांगी न होकर दांई ओर विराजित पूरे जगत का पालन करने वाली देवीय शक्ति के रुप में पूजी जाती है। बद्रीनारायण मंदिर के पिछले भाग में एक शिला है, जिसे धर्मशिला नाम से जाना जाता है। जिसके बांई तरफ एक कुण्ड है। पूर्व दिशा के मैदानी क्षेत्र में भगवान गरुड़ की पाषाण प्रतिमा है। दक्षिण दिशा में गुंबदद्वार और लक्ष्मीजी का मंदिर है। मंदिर के समीप अलकनंदा के तट पर तप्त कुंड है, जिसका जल बहुत गरम होता है। इस कुण्ड में स्नान करने के बाद ही श्रद्धालू भगवान के दर्शन के लिए जाते हैं।