गोवर्धन धाम


गिरिराज मंदिर / गोवर्धन धाम 

मथुरा और वृ्न्दावन में भगवान श्री कृ्ष्ण से जुडे अनेक धार्मिक स्थल है. किसी एक का स्मरण करों तो दूसरे का ध्यान स्वत: ही आ जाता है. मथुरा के इन्हीं मुख्य धार्मिक स्थलों में गिरिराज धाम का नाम आता है सभी प्राचीन शास्त्रों में गोवर्धन पर्वत की वर्णन किया गया है.

     गोवर्धन का मह्त्व

गोवर्धन के मह्त्व का वर्णन करते हुए कहा गया है. कि गोवर्धन पर्वत  गोकुल पर मुकुट में जडी मणि के समान चमकता रहता है.


गिरिराज जी के अंगों की विभिन्न स्थितियां बताई गई है.जहाँ गोवर्धन पर रास में श्री राधा ने श्रृंगार धारण किया था, वह स्थान "श्रंगारमंडल" के नाम से प्रसिद्ध है. श्रंगारमंडल के अधोभाग में श्री गोवर्धन का 'मुख' है, जहाँ पर भगवान ने व्रज वासियों के साथ अन्नकूट का उत्सव किया था |

'मानसीगंगा' गोवर्धन के दोनों 'नेत्र'  है, 'चन्द्रसरोवर' 'नासिका', 'गोविंदकुण्ड' 'अधर' , और 'श्रीकृष्ण कुण्ड' 'चिबुक' है,'राधाकुंड' गोवर्धन की 'जिहा' , और ललिता सरोवर 'कपोल' है. गोपाल कुण्ड 'कान' और कुसुम सरोवर 'कर्णान्तभाग' है. जिस शिला पर मुकुट का चिन्ह है उसे गिरिराज का 'ललाट' कहते है. चित्रशिला उनका 'मस्तक' और वादिनी-शिला उनकी 'ग्रीवा' है. कंदुक तीर्थ उनका 'पार्श्व भाग' है. और उष्णीष-तीर्थ को उनका 'कटि प्रदेश' बतलाया जाता है |

द्रोंण-तीर्थ 'पृष्ठ देश' में और लौकिक-तीर्थ 'पेट' में है. कदम्ब-खंड 'हदय-स्थल' में है. श्रृंगारमंडल तीर्थ उनकी 'जीवात्मा' है श्री कृष्ण चरण-चिन्ह महात्मा गोवर्धन का 'मन' है. हस्तचिन्ह तीर्थ 'बुद्धि' और ऐरावत चरण-चिन्ह उनका 'चरण' है. सुरभि के चरण चिन्हों में महात्मा गोवर्धन के 'पंख' है. पुच्छ-कुण्ड में 'पूंछ' की भावना की जाति है. वत्स-कुण्ड में उनका 'बल', रूद्र कुण्ड में 'क्रोध' और इंद्र सरोवर में 'काम' की स्थिति है. इस प्रकार गिरिराज जी के ये विभिन्न अंग है |

जो समस्त पापों को हर लेने वाले है. जो नर श्रेष्ठ गिरिराज जी की इन विभूति को सुनता है वह योगी दुर्लभ 'गोलोक' नामक परम धाम में जाता है |

     गिरिराज मंदिर कथा 

गिरिराज मंदिर के विषय में पौराणिक मान्यता है, कि श्री गिरिराज को हनुमान जी उतराखंड से ला रहे थे उसी समय एक आकाशवाणी सुनकर वे पर्वत को ब्रज में स्थापित कर दक्षिण की और भगवान श्री राम के पास लौट गये थे.  इन्हीं मान्यताओं के अनुसार भगवान श्री  कृ्ष्ण के समय में यह स्थान प्राकृ्तिक सौन्दर्य से भरा रहता था. यहां अनेक गुफाएं होने का उल्लेख किया गया है. 

     गोवर्धन धाम कथा 

गोवर्धन धाम से जुडी एक अन्य कथा के अनुसार गोकुल में इन्द्र देव की पूजा के स्थान पर गौ और प्रकृ्ति की पूजा का संदेश देने के लिये इस पर्वत को अंगूली पर उठा लिया था. कथा में उल्लेख है, कि भगवान श्री कृष्ण ने इन्द्र की परम्परागत पूजा बन्द कर गोवर्धन की पूजा ब्रज में की थी

ब्रज में प्रत्येक वर्ष इन्द्र देव की पूजा का प्रचलन था इस पूजा पर ब्रज के लोग अत्यधिक व्यय करते थें. जो वहां के निवासियों के सामर्थ्य से कहीं अधिक होता था. यह देख कर भगनान श्रीकृ्ष्ण ने सभी गांव वालों से कहा कि इन्द्र पूजा के स्थान पर जो वस्तुएं हमें जीवन देती है. भोजन देती है. उन वस्तुओं की पूजा करनी चाहिए. 

भगवान श्रीकृ्ष्ण की बात मानकर ब्रज के लोगों ने उस वर्ष देव इन्द्र की पूजा करने के स्थान पर पालतु पशुओ, सुर्य, वायु, जल और खेती के साधनों की पूजा की. इस बात से इन्द्र देव नाराज हो गएं. और नाराज होकर उन्होनें ब्रज में भयंकर वर्षा की. इससे सारा ब्रज जल से मग्न हो गया. 

सभी दौडते हुए भगवान श्रीकृ्ष्ण के पास आयें और इस प्रकोप से बचने की प्रार्थना की. भगवान श्री कृ्ष्ण ने उस समय गोवर्धन पर्वत अपनी अंगूली पर उठाकर ब्रजवासियों की रक्षा की थी. उसी दिन से गिरिराज धाम की पूजा और परिक्रमा करने से विशेष पुन्य की प्राप्ति होती है.  

गिरिराज महाराज के दर्शन कलयुग में सतयुग के दर्शन करने के समान सुख देते है.  यहां अनेक शिलाएं है. उन शिलाओं का प्रत्येक खास अवसर पर श्रंगार किया जाता है. करोडों श्रद्वालु यहां इस श्रंगार और गोवर्धन के दर्शनों के लिये आते है. गोवर्धन पर्वत की परिक्रमा कर पूजा करने से मांगी हुई मन्नतें पूरी होती है. जो व्यक्ति 11 एकादशियों को नियमित रुप से गोवर्धन पर्वत की परिक्रमा करता है. उसे मनोवांछित वस्तु की प्राप्ति होती है.    

यहां के मंदिरों में न कोई पुजारी है, तथा न ही कोई प्रबन्धक है. फिर भी सभी कार्य बिना किसी बाधाएं के पूरे होते है.  यहां के एक चबूतरे पर विराजमान गिरिराज महाराज की शिला बेहद दर्शनीय है. इसके दर्शनों के लिये भारी संख्या में श्रद्वालु जुटते है. महाराज गिरिराज की शिला को अधिक से अधिक सजाने की यहां श्रद्वालुओं में होड रहती है. श्रंगार पर हजारों-या लाखों नहीं बल्कि करोडों रुपये लगाये जाते है. यहां की वार्षिक सजावट का व्यय किसी बडे मंदिर में चढावे की धनराशि से अधिक होता है. यहां साल में चार बार विशेष श्रंगार ओर छप्पन भोग लगाया जाता है.     

     ५६  भोग नैवेद्ध 

श्रीकृ्ष्ण की उपासना अन्य देवों की तुलना में सबसे अधिक की जाती है. श्रीकृष्ण के विषय में यह मान्यता है, कि ईश्वर के सभी तत्व एक ही अवतार अर्थात भगवान श्री कृष्ण में समाहित है. गिरिराज को भगवान श्रीकृ्ष्ण के जन्म उत्सव के अलावा अन्य मुख्य अवसरों पर 56 भोग का नैवेद्ध अर्पित किया जाता है जिसमें पूरी, परांठा, रोटी,चपाती,,मक्की की रोटी,साग, अन्य प्रकार की तरकारी, साग,अंकुरित,अन्न,उबाला हुआ भुट्टा या भूना हुआ,सभी प्रकार की दालें,कढी,चावल, मिली-जुली सब्जी, सभी पकवान, मिठाई,पेढा, खीर,हलवा, गुलाबजामुन, जलेबी, इमरती, रबड़ी, मीठा दूध, मक्खन, मलाई, मालपुआ, पेठा, मीठी पूरी, कचोरी, समोसा, चावल,बाजरे की खिचड़ी, दलिया,ढोकला, नमकीन,मुरमुरा,भेलपुरी, चीले,( मीठे , नमकीन दोनों), अचार विशेषकर टींट का, चाट, टिक्की, चटनी,आलू ,पालक आदि के पकोड़े, बेसन की पकोड़ी, मठ्ठा, छाछ,लस्सी, रायता,दही, मेवा, मुरब्बा, सलाद, नीम्बू में घिसी हुयी मूली ,फल, पापड़,पापडी,पान, इलायची,सौंफ,लौंग,शुद्ध बिस्कुट, गोली,टॉफी,चाकलेट, गोल-गप्पा, उसके खट्टे मीठे जल,मठरी- शक्कर पारा,खील,बताशा, आमपापड़,शहद,सभी प्रकार की गज्जक, मूंगफली,पट्टी, रेवड़ी, गुड,शरबत, जूस, खजूर,कच्चा नारियल का भोग लगाया जाता है.  

कार्तिक  मास में ही दिवाली के ठीक 8 दिन पश्चात आती है, गोपाष्टमी. गोपाष्टमी  पर गो-चारण पर जाने से  पूर्व  भगवान श्री कृष्ण-बलरामजी ने सभी गौओं का पूजन किया ( दशम स्कंध , श्रीमद भागवत) . अतः  इसदिन गौ-माता  को तिलक करने व् रोटी खिलने की परंपरा है.  

ऐसे भी मान्यता है की धरती-माता आज के दिन ही प्रकट हुई थीं . प्रति दिन पृथ्वी-माँ को प्रणाम करने की परंपरा है ही और अक्षय-नवमी को तो विशेष ही. देव-उठनी  एकादशी के दिन श्री धाम वृन्दावन, गोवर्धन परिक्रमा मार्ग का दर्शन देखते ही बनता है. लाखों भक्त जो वर्ष-भर किसी कारण वश परिक्रमा नहीं कर पाते आज के दिन निकल पड़ते हैं, परिक्रमा के लिए विशेषकर श्री राधा-दामोदर मंदिर की. 

     गोवर्धन परिक्रमा

गोवर्धन के महत्व की सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटना यह है कि यह भगवान कृष्ण के काल का एक मात्र स्थिर रहने वाला चिन्ह है. उस काल का दूसरा चिन्ह यमुना नदी भी है, किन्तु उसका प्रवाह लगातार परिवर्तित होने से उसे स्थाई चिन्ह नहीं कहा जा सकता है.

इस पर्वत की परिक्रमा के लिए समूचे विश्व से कृष्णभक्त, वैष्णव और वल्लभ संप्रदाय के लोग आते हैं. यह पूरी परिक्रमा 7 कोस अर्थात लगभग 21 किलोमीटर है. यहाँ लोग दण्डौती परिक्रमा करते हैं. दण्डौती परिक्रमा इस प्रकार की जाती है कि आगे हाथ फैलाकर ज़मीन पर लेट जाते हैं और जहाँ तक हाथ फैलते हैं, वहाँ तक लकीर खींचकर फिर उसके आगे लेटते हैं.


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